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० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश एक धर्म या अगको लेकर सर्वथा उसी रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करना एकान्त है, और यह एकान्तवाद मिथ्या है, कदाग्रह है, तत्त्वज्ञानका विरोधी है, अधर्म है और अन्याय है। स्याद्वादन्याय इसी एकान्तवादका निषेध करता है, सर्वथा सत्-असत् एक-अनेक-नित्य-अनित्यादि संपूर्ण एकान्तोंसे विपक्षीभूत अनेकान्ततत्त्व ही उसका विषय है । वह सप्तभंगा तथा नय - विवक्षाको लिये रहता है और हेयादेयका विशेषक है, उसका 'स्यात्' शब्द ही वाक्योंमें अनेकान्तताका द्योतक तथा गम्यका विशेषण है और वह 'कथंचित्' प्रादि शब्दोंके द्वारा भी अभिहित होता है । यथा
वाक्येष्वनेकान्तद्योती गम्यं प्रति विशेषणं । स्यान्निपाताऽर्थयागित्वात्तव केवलिनामपि ।। १०३ ।। स्याद्वादः सर्वथकान्तत्यागाकिंवृत्तचिद्विधिः । सनभगनयापेक्षा हेयादेय विशेषकः ।। १०४।।
-- देवागम। अपनी घोपणाके अनुसार, मभंतभद्र प्रत्येक विषयके गुग्णदोषोंको स्याहाद
* 'मर्वथासदसदेकानेकनित्यानित्यादिमकलकान्तप्रत्यनीकानेकान्ततन्वविषयः स्याद्वादः' ।-देवागमवृनिः ।
* स्यादम्ति, म्यान्नास्ति, म्यादस्तिनास्ति, स्यादवक्तव्य, स्यादम्त्यवनव्य, स्यानास्त्यवतव्य और म्यादस्तिनास्त्यवक्तव्य, ये सात भंग है जिनका विशेष स्वरूप नथा रहस्य भगवान् समंतभद्रके 'प्राप्तमीमांसा' नामक 'देवागम' ग्रन्थमें दिया हुया है।
x द्रव्याथिक-पर्यायाथिकके विभागको लिये हुए, नेगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजसूत्र, शब्द, ममभिरूढ और एवंभून ऐमे सात नय है । इनमेंमे पहले तीन नय 'द्रव्याथिक' और शेप 'पर्यायाथिक' कहे जाते हैं। इमी तरह पहले चार 'प्रर्थनय और शेष तीन 'गब्दनय' कहे जाते हैं। द्रव्याथिकको कथंचित् शुद्ध, निश्चय नथा भूतार्थ और पर्यायाथिकको अशुद्ध , व्यवहार तथा अभूतार्थ नय भी कहते हैं । इन नयोंका विस्तृत स्वरूप 'नयचक्र' तथा 'लोकवातिक' आदि ग्रंथोंमे जानना चाहिये ।