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~~~~~~~~~~~~~~~........स्वामा समन्तभद्र
-~~~~~.......... १७६ उद्धारका अपनी शक्तिभर नद्योग किया करते थे। ऐसा मालूम होता है कि स्वात्म-हितसाधनके बाद दूसरोंका हितसाधन करना ही उनके लिये एक प्रधान कार्य था और वे बड़ी ही योग्यताके साथ उसका संपादन करते थे। उनकी वाक्परिणति सदा क्रोधसे शून्य रहती थी, वे कभी किसीको अपशब्द नहीं कहते थे, न दूसरोंके अपशब्दोंसे उनकी शांति भंग होती थी, उनकी आंखोंमें कम सुखी नहीं पाती थी, हमेशा वे हंसमुख तथा प्रमन्नवदन रहते थे, बुरी भावनासे प्रेरित होकर दूसरोंके व्यक्तित्व पर कटाक्ष करना उन्हें नहीं आता था और मधुरभाषा तो उनकी प्रकृतिमें ही दाग्विन था । यही वजह थी कि कठोर भापण करनेवाले भी उनके मामने पाकर मृदुभाषी बन जाते थे, अपशब्दमदान्धों को भी उनके पागे बोल तक नहीं पाता था और उनके 'वज्रपात तथा 'वजांकुश' की उपमाको लिए हुए वचन भी लोगों को अप्रिय मालूम नहीं होते थे।
समंतमद्रके वचनोंमें एक म्वास विशेषता यह भी होती थी कि वे स्याद्वादन्मायी तलामें तुले हुए होते थे और टम लिये उनपर पक्षपातका भूत कभी सवार होने नहीं पाता था। ममंतभद्र स्वयं परीक्षाप्रवानी थे. वे कदाग्रहको बिल्कुल पसद नहीं करते थ, उन्होने भगवान् महावीर तककी परीक्षा की है
और तभी उन्हे 'ग्राम' रूपम स्वीकार किया है । वे दुमकी भी परीक्षाप्रधानी होने का उपदेश देते थे ---उनकी मदैव यही शिक्षा रहती थी कि किसी भी तत्त्व प्रथवा सिद्धान्तको. बिना परीक्षा किये केवल दूगरोंके कहन पर ही न मान लेना चाहिये बल्कि समर्थ युक्तियोंद्वाग उमकी अच्छी तरहने जांच करनी चाहिये-उमके गुण-दोषों का पता लगाना चाहिये--ौर तब उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करना चाहिये । ऐमी हालतमे वे अपने किसी भी सिद्धान्तको जबरदस्ती दूसरोंके गले उतारने अथवा उनके मिर मढ़वा कभी यत्न नही करते थे। वे विद्वानोंको, निष्पक्ष दृष्टिगे, स्व-पर मिद्धानों पर खुला विचार करने का पूरा अवसर देते थे। उनकी मात्र यह घोषणा रहती थी कि किसी भी वस्तुको एक ही पहलू मे-एक ही पोरसे मत देखो, उमे सब पोरसे और सब पहलुप्रोंमे देविना चाहिये, तभी उसका यथार्थ ज्ञान हो सकेगा। प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म अथवा अंग होते है-इसीसे वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसके किसी