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१७८ जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश लिये खड़े हो जाते हैं और दूसरेकी युक्तियुक्त बातको भी मानकर नहीं देते, फिर भी समंतभद्रके साथमें ऐसा प्रायः कुछ भी न होता था, यह क्यों ?--अवश्य ही इसमें कोई खास रहस्य है जिसके प्रकट होने की जरूरत है और जिसको जानने के लिये पाठक भी उत्सुक होंगे।
जहाँ तक मैंने इस विषयकी जाँच की है-इस मामले पर गहरा विचार किया है-और अपनेको समंतभद्रके साहित्यादिपरसे उसका अनुभव हुअा है उसके आधार पर मुझे इस बातके कहने में जरा भी संकोच नहीं होता कि, समंतभद्रकी इस सफलताका सारा रहस्य उनके अन्तःकरणकी शुद्धता, चरित्रकी निर्मलता और उनकी वाणीके महत्त्व में संनिहित है, अथवा यों कहिये कि यह मत्र अंत.करण तथा चरित्रकी शुद्धि को लिये हुए उनके वचनोंका ही माहात्म्य है जो वे दूसरों पर अपना इस प्रकार सिक्का जमा मके हैं। समंतभद्रकी जो कुछ भी वचनप्रवृत्ति होती थी वह सब प्राय: दूसरोंकी हितकामनाको हो लिये हा होती थी। उसमें उनके लौकिक स्वार्थकी अथवा अपने अहंकारको पृष्ट करने और दूसरोंको नीचा दिवानेम्प कुत्सित भावनाकी गंध तक भी नहीं रहती थी। वे स्वयं मन्मार्ग पर प्रारूढ़ थे और यह चाहते थे कि दूमरे लोग भी सन्मार्गको पहचानें और उसपर चलना प्रारंभ करें । साथ ही, उन्हें दूसरोको कुमार्गमे फैमा हुमा देखकर बड़ा हो खेद तथा कष्ट होना था और इसलिये उनका वाकप्रयत्न सदा उनकी इच्छाके अनुकूल ही रहता था और वे उसके द्वारा एस लाकि
• आपके इस खेदादिको प्रकट करनेवाले तीन पद्य, नमूनके तौर पर, इस प्रकार है
मद्यांगवद्भूतसमागम ज्ञः शक्त्यन्तव्यक्ति रदैवसतिः । इत्यात्मशिश्नोदरपुष्टिनुप्र्दनि भयहाँ ! मृदव: प्रलब्धा ॥३५।। दृष्टेऽविशिष्टे जननादिहेतो विशिष्टता का प्रतिसत्त्वमेषां । स्वभावतः किं न परस्य सिद्धि रतावकानामपि हा ! प्रपातः ॥३६।। स्वच्छन्दवृत्तेजगतः स्वभावादुश्च रनाचारपथेप्वदोपं । निघुष्य दीक्षासममुक्तिमानास्त्वदृष्टिबाह्या बन ! विभ्रमन्ति ॥३७।।
-युक्त्यनुशासन।