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________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 365 समर्थक होता है / (52) / विवक्षित मुख्य होता है और अविवक्षित गौरण / जो प्रविवक्षित होता है वह निरात्मक (प्रभावरूप) नहीं होता / मुख्य-गोरगकी व्यवस्थासे एक ही वस्तु शत्रु, मित्र तथा उभय अनुभय-शक्तिको लिये रहती है / वास्तवमें वस्तु दो प्रवधियों(मर्यादामों)से ही कार्यकारी होती हैविधि-निषेष, सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्यायरूप दो दो धर्मोंका प्राश्रय लेकर ही प्रक्रिया करने में प्रवृत्त होती है और अपने यथार्थ स्वरूपकी प्रतिष्ठापक बनती है (53) / वादी-प्रतिवादी दोनोंके विवादमें दृष्टान्तकी सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होता है; परन्तु वसी कोई दृष्टान्तभूत वस्तु है नहीं जो सर्वया एकान्तकी नियामक दिखाई देती हो ! अनेकान्त दृष्टि मबमें-माध्य, साधन पौर दृष्टान्नादिमें-प्रपना प्रभाव डाले हुए है-वस्तुमात्र अनेकान्त्वसे व्याप्त है / इसीसे सर्वथा एकान्तवादियोके मतमें ऐमा कोई दृष्टान्त ही नहीं बन सकता जो उनके सर्वया एकान्तका नियामक हो और इमलिये उनके मर्वथा नित्यत्वादि साध्यकी सिद्धि नहीं बन सकती (54) एकान्नदृष्टिके प्रतिपेधकी मिद्धिरूप न्याय-बाग्गोंमे-स्वजानके सम्यक प्रहारोंमे-मोहशत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए शत्रसमूहका -नाग किया जाना है (55) / (12) जो राग पोर षसे रहित होते है उन्हें यद्यपि पूजा तथा निन्दासे कोई प्रयोजन नहीं होता,फिर भी उनके पुण्यगुणों का स्मरण चित्तको पाप-मलोंमे पवित्र करता है (57) / पूज्य-जिनकी पूजा करते हुए जो ( मराग-परिगति अथवा प्रारम्भादि द्वारा ) लेशमात्र पापका उपार्जन होता है वह (भावपूर्वक को हुई पूजासे उत्पन्न होनेवाली) बहुपुण्यरागिमें उसी प्रकार दोषका कारण नहीं बनता जिस प्रकार कि विषकी एक कणिका शीत-शिवाम्बुराशिको-ठडे कल्याणकागे जलसे भरे हुए समुद्रको-दूषित करनेमें समर्थ नही होती (58) / जो बाह्य वस्तु गुण-दोषकी उत्पतिका निमित होती है वह अन्तरंग में वन्नेवाले गुणदोषों की उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूलहेनुको अंगभूत होती है / बाह्य वस्नुकी अपेक्षा म रखना हुमा केवल अभ्यन्तर कारण भी गुरण-दोषकी उत्पत्ति में समर्थ नहीं है (59) / बाह्य और पम्पन्तर दोनों कारणोंको यह पूर्णता ही द्रव्यगत स्वभाव है, अन्यथा पुरुषों में मोक्षकी विधि भी नहीं बन सकती (60) / (13) जो नित्य-मणिकादिक नय परस्परमें पनपेक्ष ( स्वतंत्र) होनेसे
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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