________________ 366 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश स्व-पर-प्रणाशी (स्व-पर-वैरी ) है (और इसलिये 'दुर्नय' है) वे ही नय परस्परापेक्ष ( परस्परतंत्र ) होनेसे स्व-परोपकारी है और इसलिये तस्वरूप सम्यक् नय हैं (61) / जिस प्रकार एक-एक कारक शेष प्रन्यको अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके प्रर्थकी सिद्धिके लिए समर्थ होता है उसी प्रकार सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य मौर विशेषको विषय करनेवाले (द्रव्याथिक, पर्यायाधिक मादिरूप ) जो नय है वे मुख्य मोर गोरणकी कल्पनासे इष्ट ( अभिप्रेत ) है (62) / परस्परमें एक-दूसरेकी अपेक्षाको लिए हुए जो प्रभेद और भेदका-प्रन्वय तथा व्यतिरेकका-शान होता है उससे प्रसिद्ध होनेवाले सामान्य और विशेषको उसी तरह पूर्णता है जिस तरह कि ज्ञान-लक्षण-प्रमाण स्व-पर-प्रकाशक रूपमें पूर्ण है / सामान्यके विना विशेष मौर विशेषके विना सामान्य अपूर्ण है अथवा यों कहिये कि बनता ही नहीं (63) / वाच्यभूत विशेष्यका-सामान्य अथवा विशेषका-वह वचन जिससे विशेष्यको नियमित किया जाता है 'विशेषण' कहलाता है और जिसे नियमित किया जाता है वह 'विशेष्य' है। विशेषण और विशेष्य दोनोंके सामान्यरूपताका जो प्रतिप्रसंग पाता है वह स्थाद्वादमतमें नहीं बनता; क्योंकि विवक्षित विशेषगा-विशेष्यसे अन्य प्रविवक्षित विशेषण-विशेष्यका स्यात्' शब्दसे परिहार हो जाता है जिसकी उक्त मतमें सर्वत्र प्रतिष्ठा रहती है (64) / जो नय स्यात्पदरूप सत्यसे चिह्नित है वे रसोपविद लोह-धातुपोंकी तरह अभिप्रेत फलको फलते हैं -यथास्थित वस्तुतत्त्वके प्ररूपणमें समर्थ होकर सन्मार्गपर ले जाते (14) मोह पिशाच, जिसका शरीर पनन्त दोषोंका प्राधार है पोर जो चिरकालमे प्रात्माके साथ सम्बद्ध होकर उसपर प्रपना मातङ्क जमाए हुए है, तत्त्वश्रद्धामें प्रसन्नता धारण करनेसे जीता जाता है (66) / कषाय पीडनशील शत्रु है, उनका नाम नि:शेष करनेसे-पात्माके साथ उनका सम्बन्ध पूर्णत: विच्छेद कर देने से मनुष्य अशेषवित् (सर्वश) होता है। कामदेव विशेष रूपसे शोषक-संतापक एक रोग है, जिसे समाषिरूप पोषषके गुणोंसे विलीन किया जाना है (67), तृष्णा नदी परिश्रम-जलसे भरी है और उसमें भयरूप तरंग-मालाएं उठती है। वह नवी अपरिग्रहरूप ग्रीष्मकालीन सूर्यको किरणोंसे