________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तीत्र 367 सुखाई जाती है-परिग्रहके संयोगसे वह उलरोत्तर बढ़ा करती है (68) / (15) तपश्चरणरूप अग्नियोंसे कर्मवन जलाया जाता है और शाश्वत सुख प्राप्त किया जाता है (71) / (16) दयामूर्ति बननेसे पापको शान्ति होती है 76; समाधिचकसे दुर्जय मोहचक-मोहनीय कर्मका मूलोत्तर-प्रकृति-प्रपंच-जीता जाता है 77; कर्मपरतंत्र न रहकर मारमतन्त्र बननेपर माहंन्त्य लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है 78; ध्यानोन्मुख होनेपर कृतान्त(कर्म)-चक्र जीता जाता है 66; अपने राग-द्वेषकाम-क्रोधादि दोष-विकार ही मात्मामें प्रशान्तिके कारण है, जो अपने दोपोंको शान्त कर प्रात्मा शान्तिको प्रतिष्ठा करनेवाला होता है वही गरमागतोंके लिये शान्ति का विधाता होता है और इसलिये जिसके प्रात्मामें स्वयं शान्ति नहीं यह शरणागतके लिये शान्तिका विधाता भी नहीं हो सकता 80 / (17) जिनदेव कुन्थ्वादि सब प्राणियोंपर दयाके अनन्य विस्तारको लिये हए होते हैं और उनका धर्मचक्र ज्वर-जरा-मरणको उपशानिके लिए प्रतित होता है (81) / तृषापा (विषयाकांक्षा ) रूप मग्नि ज्वालाएँ स्वभावसे ही संगापित करती है। इनकी शान्ति अभिलषित इन्द्रि-विषयों की सम्पत्तिसे-प्रचुर परिमाण में सम्प्रालिसे---नहीं होती. उलटी वृद्धि ही होती है, ऐमी ही वस्तुस्थिति है / सेवन किये हुए इन्द्रिय-विषय ( मात्र कुछ समयके लिये ) गरीरके संतापको मिटाने में निमित्तमात्र है-तृष्णा रूप पग्निज्वालामोंको शान्त करने में समयं नहीं होते (82) / बाह्य दुदंर तप प्राध्यात्मिक ( अन्तरंग ) तपकी वृद्धिके लिये विधेय है। चार ध्यानोंमेंमे मादिके दो कलुषित ध्यान (प्रात-रौद्र ) हेप ( ताज्य) है और उत्तरवर्ती दो सातिशय ध्यान (घH, शुक्ल) उपादेय है (86) कोकी (पाठ मूल प्रकृतियोंमेंसे ) चार मूल प्रकृतियां (जानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय अन्तराय) कटुक (पातिया) है और वे सम्यग्दर्शनादिस्प सातिशय रत्नत्रयाग्निसे भस्म की जाती है, उनके भस्म होनेपर ही प्रास्मा पातवीर्य-शक्तिसम्पन्न अथवा विकसित होता है और सकल-वेद-विषिका दिनेता बनता है (84) / (18) पुग्यकीति मुनीन्द्र (जिनेन्द्र ) का नाम-कीर्तन भी पवित्र करता है (17) / मुमुनु होनेपर पापीका बारा विभव पीर साम्राज्य भी पीएं पूरक