________________ 368 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश समान निःसार जान पड़ता है (88) / कषाय-भटोंकी सेनासे युक्त जो मोहम्म शत्रु है वह पापात्मक है, उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान मौर उपेक्षा (परमौदासीन्यलक्षण सम्यकचारित्र) रूप अस्त्र-शस्त्रोंसे जीता जाता है (60) / जो धीर वीर मोहपर विजय प्रास किये होते हैं उनके सामने त्रिलोक-विजयी दुर्दर कामदेव भी हतप्रभ हो जाता है (61) / तृष्णा नदी इस लोक तथा परलोकमें दुःखोंकी योनि है, उसे निर्दोषज्ञान-नौकासे पार किया जाता है (62) / रोग और पुनर्जन्म जिसके साथी है वह पन्तक (यम) मनुष्योंको रुलानेवाला है; परन्तु मोह-विजयीके सन्मुख उसकी एक भी नहीं चलती (63) / माभूषणों, वेषों तथा प्रायुधोंका त्यागी और ज्ञान, कषायेन्द्रिय-जय तथा दयाकी उत्कृष्टताको लिये हए जो रूप है वह दोषों के विनिग्रहका सूचक है (64) / ध्यान-तेजसे प्राध्यात्मिक ( ज्ञानावरणादिरूप भीतरी) अन्धकार दूर होता है। (65) / सर्वज्ञज्योतिमे उत्पन्न हुमा महिमोदय सभी विवेकी प्राणियों को नतमस्तक करता है (16) / सर्वज्ञकी वाणी सर्वभाषानी में परिणत होनेके स्वभावको लिये हुए होती है और अमृत के समान प्राणियों को सन्तुष्ट करती है (97) / अनेकान्तदृष्टि सती है-सत्स्वरूप सच्ची है और उसके विपरीत एकान्तदृष्टि शून्यरूप असती है -सच्ची नहीं है। अतः जो कथन मनेकान्तदृष्टिसे रहित है वह मब मिथ्या कथन है; क्योंकि वह अपना ही- सत् या प्रसत् प्रादिस्प एकान्तका ही-घातक है-प्रनेकान्तके विना एकान्तकी स्वरूप प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकनी (68) / जो प्रात्मघाती एकान्तवादी अपने स्वघाति-दोषको दूर करने में असमर्थ है, स्याद्वादसे द्वेष रखते हैं मोर यथावत् वस्तु-स्वरूपसे अनभिज्ञ है उन्हीने तत्वको प्रवक्तव्यताको प्राश्रित किया है-वस्तुतत्त्व सर्वपा प्रवक्तव्य है ऐसा प्रतिपादन किया है (100) / ___ सत्, प्रसत. एक, अनेक, नित्य, प्रनित्य, वक्तव्य पोर प्रवक्तव्यरूपमें जो नयपक्ष है वे सर्वया रूपमें तो प्रतिक्षित है--मिथ्या नय है-स्वेष्टमें बाधक है और स्यात् रूपमें पुष्टिको प्राप्त होते है--सम्यक्नय है अर्थात् स्वकीय भयंका निर्वाधरूपसे प्रतिपादन करने में समर्थ है (101) / ... 'स्यात्' शब्द सर्वथारूपले प्रतिपादन के नियमका स्यागी और यथारष्टको