________________ समन्तभद्रकास्वयम्भूस्तोत्र 366 जिस प्रकार सत् असत् पादि रूपमें वस्तु प्रमाण-प्रतिपन्न है उसको-प्रपेक्षामें रखनेगला है / यह शब्द एकान्तवादियोंके न्यायमें नहीं है। एकान्तवादी अपने वैरी प्राप है (102) / स्याहादरूप पाहत-मतमें सम्यक् एकान्त ही नहीं किन्तु अनेकान्त भी प्रमाण पौर नय-साधनों ( दृष्टियों) को लिये हुए अनेकान्तस्वरूप है, प्रमाणकी दृष्टिसे अनेकान्रूतप और विवक्षित नयकी दृष्टि से अनेकान्तमें एकान्तरूप-प्रतिनियतधर्मरूप--सिद्ध होता है (103) / (16) महत्प्रतिपादित धर्मतीर्थ संसार-समुद्रसे भयभीत प्राणियोंके लिये पार उतरनेका प्रधान मार्ग है (106) / शुक्लध्यानरूप परमतपोग्नि ( परम्परासे चले पाने वाले ) अनन्त-दुरितरूप कमष्टिकको भस्म करने के लिए समर्थ (20) 'चर और प्रचर जगत प्रत्येक क्षण में ध्रौव्य उत्पाद और व्ययलक्षणको लिए हुए है' यह वचन मिनेन्द्रको सर्वजताका चिह्न है (114) / पाठों पापमलरूप कलङ्कोंको ( जिन्होंने जीवात्माके वास्तविक स्वरूपको आच्छादित कर रचा है ) अनुपम योगबल मे--परमशुक्लध्यानाग्निके तेजमे-~-भस्म किया जाता है और ऐसा करके ही प्रभव-सौख्यको-संसारमें न पाए जानेवाले प्रतीन्द्रिय मोक्ष-मुखको--प्राप्त किया जाता है (115) / (21) साधु सोताकी स्तुति कुशल-परिणामकी कारण होती है और उसके द्वारा श्रेयोमार्ग सुलभ होता है (116) / परमात्म-स्वरूप अथवा शुद्धात्मस्वरूपमें चित्तको एकाग्र करनेसे जन्म निगडको समूल नष्ट किया जाता है (117) / वस्तुनत्त्व बहुत नयोंकी विवक्षाके वशमे विधेय, प्रतिषेध्य, उभय, प्रनुभय तथा मियभंग-विधेयानुभय, प्रतिषेध्यानुभय पोर उभयानुभय--रूप है, उसके अपरिमित विशेषों ( धर्मो ) मेंसे प्रत्येक विशेष सदा एक दूसरेकी अपेक्षाको लिए रहना है पौर सप्तमङ्गके नियमको प्रपना विषय किये रहता है (118) / महिमा परमब्रह्म है। जिस प्राधमविधिमें प्रयुमात्र भी प्रारम्भ म हो वहीं मािसाकी पूर्णप्रतिष्ठा होती है-प्रन्यत्र नहीं। महिंसा परमब्रह्मकी सिटिक लिए उभय प्रकारके परिग्रहका स्याम मावश्यक है। जो स्वाभाविक वेषको छोड़कर विकृतवेश तथा उपधिमें रत होते हैं उनसे परिग्रहका वह त्याग नहीं बनता