________________ 364 . जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है, क्योंकि सर्वथा भिन्नता या अभिन्नता माननेपर शून्य-दोष माता है-वस्तुके सर्वथा लोपका प्रसंग उपस्थित होता है (42) / यह वही है, इस प्रकारकी प्रतीति होनेसे वस्तुतव नित्य है और यह वह नहीं-प्रन्य है, इस प्रकारकी प्रतीतिकी सिद्धि से वस्तुतत्त्व नित्य नहीं-प्रनित्य है / वस्तुतत्त्वका नित्य भोर मनित्य दोनों रूप होना विरुद्ध नहीं है क्योंकि वह बहिरंग निमित्त-सहकारी कारण--अन्तरंग निमित्त-उपादान कारण-पौर नैमित्तिक-निमित्तोंसे उत्पन्न होनेवाले कार्य के सम्बन्धको लिये हुए है (43) / पदका वाच्य प्रकृति ( स्वभाव ) से एक और अनेक रूप है, 'वृक्षा:' इस पदज्ञानको तरह। अनेकान्तात्मक वस्तुके 'अस्तित्त्वादि किसी एक धर्मका प्रतिपादन करने पर उस समय गौणभूत नास्तित्वादि दूसरे धर्मके प्रतिपादनमें जिसकी माकांक्षा रहती है ऐसे आकांक्षी-सापेक्षवादी अथवा स्याद्वादीका स्यात्' यह निपातस्यात् शब्दका साथमें प्रयोग-गौरणकी अपेक्षा न रखनेवाले नियममें--सर्वथा एकान्तमतमें-बाधक होता है (44) / 'स्यात्' पदरूपसे प्रतीयमान वाक्य मुख्य और गौणकी व्यवस्थाको लिये हुए है और इसलिये अनेकान्तवादसे उप रखनेवालोंको प्रपथ्य रूपमे अनिष्ट है-~~-उनको सैद्धान्तिक प्रकृतिके विरुद्ध है (45) / इस स्तवनमें तत्वज्ञानकी भी कुछ विशेष व्याख्या अनुवादपरमे जानने योग्य है। (10) सांसारिक सुखोंकी भभिलापारूप अग्निके दाहमे मूर्थिन हुमा मन ज्ञानमय अमृतजलोंके सिञ्चनसे मूर्छा-रहित होता है (47) / प्रान्मविशुद्धि के मार्गमें दिन रात जागृत रहनेकी--पूरणं सावधानर हनेकी-जरूरत है, तभी वह विशुद्धि सम्पन्न हो सकती हैं (48) / मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको पूर्णतया रोकनेसे पुनर्जन्मका अभाव होता है और साथ ही जरा भी टल जाती है (65) (11) वह विधि-स्वरूपादि-चतुष्टयसे अस्तित्त्वरूप-प्रमाण है जो कथंचित् तादात्म्य-सम्बन्धोंको लिए हुए प्रतिषेधरूप है-पररूपादि-चतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्त्वरूप भी है। इन विधि प्रतिषेध दोनोंमेंसे कोई प्रधान होता है (वक्ताके भभिप्रायानुसार, न कि स्वरूपसे)। मुख्यके नियामका-'स्वरपादि चतुष्टयसे विधि और पररूपादि चतुष्टयसे ही 'निषेष' इस नियमका-जो हेतु है वह नय है और वह नय दृष्टान्त समर्थन दृष्टान्तसे समर्पित पथवा दृष्टान्त