________________ समन्तभद्रका स्वयम्भस्तोत्र 363 (6) जो केवलज्ञानादि लक्ष्मीसे पालिगित चारुमूर्ति होता है वही भव्यजीवरूप कमलोंको विकसित करने के लिये सूर्यका काम देता है (26) / (7) प्रात्यन्तिक स्वास्थ्य-विभावपरिणति मे रहित अपने अनन्तज्ञानादिस्वरूप में प्रविनश्वरी स्थिति-ही जीवात्मानोंका स्वार्थ है-क्षणभंगुर भोग स्वार्थ न होकर प्रस्वार्थ है / इन्द्रियविषय-सुख के सेवनसे उत्तरोत्तर तृष्णाकीभोगाकांक्षाकी--वृद्धि होती है और उससे तापकी-शारीरिक तथा मानसिक दुःखको-शान्ति नहीं होने पाती (31) / जीवके द्वारा धारण किया हुमा शरीर प्रजंगम, जंगम-नेय-यन्त्र, बीभत्सु, पूति, क्षयि, और तापक है भोर इसलिये इसमें अनुराग व्यर्थ है, यह हितकी बात है (32) / हेतुद्वयसे प्राविकृत-कार्य-लिला भवितव्यता प्रलंध्यशक्ति है, इस भवितव्यताको अपेक्षा न रखनेवाला प्रहंकारसे पीड़ित हमा संसारी प्राणी (यंत्र-मंत्र-तंत्रादि ) अनेक सहकारी कारणों को मिलाकर भी सुसादिक कार्योको वस्तुतःसम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता (33) / यह संसारी प्राणी मृत्युसे डरता है परन्तु ( प्रलंध्य. शक्ति-भवितव्यता-वश) उस मृत्युमे छुटकारा नहीं, नित्य ही कल्याण चाहता है परन्तु ( भावीकी उसी मलध्यशक्तिवश ) उसका लाभ नहीं होता, फिर भी यह मूढप्रागी भय तथा इच्छाके वशीभूत हुमा स्वयं ही वृथा तप्तायमान होता है अथवा भवितव्यता-निरपेक्ष प्राणी तथा ही भय और इच्छाके वश हुपा दुःख उठाता है (34) / () जिन्होंने अपने प्रत्त.करण के कषाय-बन्धनको जोता है-सम्पूर्णक्रोधादि-कषायोंका नाश कर प्रकपार-पद प्राप्त किया है-वे 'जिन' होते हैं (36) / ध्यान-दीपके प्रतिशयमे-परमशुक्लध्यान के तेज-द्वारा-प्रचुर मानसप्रन्धकार-झानावरणादि-कमजन्य मात्माका समस्त प्रज्ञानान्धकारदूर होता है (37) (6) तत्व वह है जो सत्-प्रसत् मादिरूप विवक्षिताऽविवाक्षिन स्वभावको लिये हुए है और एकान्तदृष्टिका प्रतिषेधक है तथा प्रमाण सिद्ध है (41) / वह तत्त्व कपंचित् तद्रप मोर कचित् मतदूप है; क्योंकि वैसी ही सत्-प्रसत् मादि रूपकी प्रतीति होती है। स्वरूपादि-चतुष्टयरूप विधि मोर पररूपादिचतुष्टयरूप निषेषके परस्परमें अत्यन्त (सर्वथा) भिनता तथा अभिन्नता नहीं