________________ 362 . जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश के प्रतीकारादिमें प्रासक्ति (प्रतीव रागकी प्रवृत्ति) व्यर्थ है (18) जो मनुष्य मासक्तिके इस लोक तथा परलोक-सम्बन्धी दोषों को समझ लेता है वह इन्द्रियविषयसुखोंमें प्रासक्त नहीं होता; अत: आसक्तिके दोषको भले प्रकार समझ लेना चाहिये (16) / मासक्तिसे तृष्णाकी अभिवृद्धि होती है और इस प्राणीकी स्थिति सुखपूर्वक नहीं बनती. इसीसे वह तापकारी है। ( चौथे स्तवनमें वर्णित ) ये सब लोक-हितको बातें हैं (20) / (5) अनेकान्त-मतसे भिन्न शेष सब मतोंमें सम्पूर्ण क्रियानों तथा कर्ता, कर्म, करण प्रादि कारकोंके तत्त्वकी सिद्धि --उनके स्वरूपकी उत्पत्ति अथवा ज्ञप्तिके रूपमें प्रतिष्ठा-नहीं बनती, इसीसे अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्व ही मुयुक्ति-नीत है (21) / वह सुयुक्ति-नीत वस्तुतन्त्रभेदाऽभेद-ज्ञानका विषय है और अनेक तया एकरूप है, पौर यह वस्तुको भेद-प्रभेदके रूपमें ग्रहण करनेवाला जान ही मत्य है / जो लोग इनमेंसे एकको ही सत्य मानकर दूसरे में उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है; क्योंकि परस्पर अविनाभावसम्बन्ध होनेमे दोनोंमेंसे एकका प्रभाव हो जानेमे वस्तुतत्त्व अनुपास्यनिःस्वभाव हो जाता है (22) / जो सत् है उसके कश्चित् प्रसत्व-यक्ति भी होती है; जैगे पुष्प वृक्षोंपर तो अस्तित्वको लिए हुए प्रसिद्ध है परन्तु प्राकाशपर उसका अस्तित्व नहीं है. प्राकाशकी अपेक्षा वह प्रमत्म्प है। यदि वस्तुतत्त्वको सर्वया स्वभावच्युत माना जाय तो वह अप्रमाण ठहरता है। इमीमे सर्वजीवादितत्त्व कथञ्चित् सत्-असत्रूप अनेकान्तात्मक है। इम मतसे भिन्न जो एकान्त मत है वह स्ववचन-विरुद्ध है (23) / यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय-अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रियाकारककी योजना ही बन सकती है। ( इसी तरह ) जो मवंथा प्रसत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सर्वया सत् है उसका कभी नाश नहीं होता / दीपक भी बुझ जानेपर मर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप पुद्गल पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्त्व रखता है (24) / ( वास्तव में ) विधि पौर निषेध दोनों कथञ्चित् इष्ट हैं / विवक्षासे उनमे मुख्य-गौण की व्यवस्था होती है (25) / इस तत्वज्ञानकी कुछ विशेष व्याख्या अनुवादपरसे जानने योग्य है।