________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 6 (6) / जो ब्रह्मनिष्ठ (अहिंसातत्पर ), सम-मित्र-शत्रु और कषाय-दोषोंसे रहित होते है वे ही प्रात्मलक्ष्मीको-प्रनन्तज्ञानादिरूप जिनधीको-प्राप्त करने में समर्थ होते हैं (10), (3) यह जगत भनित्य है, प्रशरण है, अहंकार-ममकारकी क्रियाओंके द्वारा संलग्न हुए मिथ्याभिनिवेशके दोपसे दूषित है और जन्म-जरा-मरणसे पीड़ित है, उसे निरंजना शान्तिकी जरूरत है (12) / इन्द्रिय-विषय-सुख बिजलीकी चमकके समान चंचल है-क्षणभर भी स्थिर रहनेवाला नहीं है--ौर तृष्णारूपी रोगकी वृद्धि का एकमात्र हेतु है-इन्द्रिय विषयोंके अधिकाधिक सेवनसे दृप्ति न होकर उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी वृद्धि ताप उत्पन्न करती है मोर यह ताप जगतको (कृषिवाणिज्यादि क्लेशकर्मोमें प्रवृत्त कराकर ) अनेक दुःख-परम्परासे पीडिन करता रहता है (13) / बन्ध, मोक्ष, दोनों के कारण, बद्ध, मुक्त और मुक्तिका फल, इन मबकी व्यवस्था स्याद्वादी-प्रकान्तप्टिके मतमें ही ठीक बैटनी है--कान्त दृष्टियो अथवा सर्वथा एकान्तवादियोके मतोंमें नहीं-मोर 'शास्ता' ( तन्वोपदेष्टा ) पदके योग्य स्याद्वादी प्रहन्त-जिन ही होते है-उन्हीका उपका मानना चाहिये (14) / (4) समाधिकी मिद्धि के लिये उभयप्रकार के नै ग्रन्थ्य-गुरगसे-बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहके त्यागसे- युक्त होना आवश्यक है-विना इसके समाधिकी सिद्धि नहीं होनी; परन्तु क्षमा मखीवाली दयावधूका त्याग न करके दोनोंको अपने प्राश्रयमें रखना जरूरी है (16) / प्रचेतन शरीरमें पोर शरीर-सम्बन्धमे अथवा शरीर के साथ किया गया प्रान्माका जो कमश बन्धन है उससे उत्पन्न होनेवाले मुख-दुःखादि तथा स्त्री-पुत्रादिकमें 'यह मेग है' इस प्रकारके प्रमिनिवेशको लिये हुए होनेसे तथा क्षणभंगुर पदार्थों में स्थायित्वका निश्चय कर लेनेके कारण यह जगत नष्ट हो रहा है-प्रात्महित-साधनमे विमुख होकर अपना प्रकल्याण कर रहा है (17) / धादि दु:खोंके प्रतिकारमे और इन्द्रिय. विषय-जय स्वल्प सुखके अनुभवमे देह पोर देहधारीका मुखपूर्वक अवस्थान नहीं बनता। ऐसी हालत में क्षुधादि-दुःखों के इम क्षरणस्थायी प्रतीकार ( इलाज) मौर इन्द्रिय-विषय-जन्य स्वल्प मुखके सेवनसे न तो वास्तवमें इस शरीरका कोई उपकार बनता है और न शरीरधारी प्रात्माका ही कुछ भला होता है प्रतः इन