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________________ 360 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सुस्थित होनेके साधनोंका परिज्ञान कराया जाता है, और इस तरह हृदयान्धकारको दूरकर-भूल-भ्रान्तियोंको मिटाकर-मास्मविकास सिद्ध किया जाता है, उसे 'ज्ञानयोग' कहते है। इस ज्ञानयोगके विषयमें स्वामी समन्तभद्रने क्या कुछ कहा है उसका पूरा परिचय तो उनके देवागम, युक्त्यनुशासन मादि सभी अन्योंके गहरे अध्ययनसे प्राप्त किया जा सकता है / यहाँपर प्रस्तुत ग्रन्यमें स्पष्टतया सूत्ररूपसे, सांकेतिक रूपमें प्रथवा सूचनाके रूपमें जो कुछ कहा गया है उसे, एक स्वतंत्र निबन्धमें संकलित न कर, स्तवन-क्रमसे नीचे दिया जाता है, जिससे पाठकोंको यह मालूम करने में सुविधा रहे कि किस स्तवनमें कितना मोर क्या कुछ तत्त्वज्ञान सूत्रादिरूपसे समाविष्ट किया गया है / विज्ञजन अपने बुद्धिबलसे उसके विशेष रूपको स्वयं समझ सकेंगे-व्याख्या करके यह बतलानेका यहाँ अवसर नहीं कि उसमें और क्या-क्या तत्त्वज्ञान छिपा हुमा है अथवा उमके साथमें अविनाभावरूपसे सम्बद्ध है / उसे व्याख्या करके बतलानेसे प्रस्तुतनिबन्धका विस्तार बहुत बढ़ जाता है, जो अपनेको इष्ट नहीं है | तत्त्वज्ञान-विषयक जो कथन जिस कारिकामें पाया है उस कारिकाका नम्बर भी साथमें नोट कर दिया (1) पूर्ण विकासके लिये प्रबुद्धतत्त्व होकर ममत्वसे विरक्त होना, वधूवित्तादि-परिग्रहका त्याग करके जिनदीक्षा लेना-महावतादिको ग्रहण करना, दीक्षा लेकर भाए हुए उपसर्ग-परिषहोंको समभावसे सहना और प्रतिज्ञात सद्बतनियमोंसे चलायमान नहीं होना आवश्यक है ( 2, 3) / अपने दोपोंके मूल कारणको अपने ही समाधि-तेजमे भस्म किया जाता है मौर तभी ब्रह्मपदरूप अमृतका स्वामी बना जाता है (4) / (2) जो महामुनि धनोपोहसे-घातिया कमौके प्रावरणादिरूप उपसेपसेरहित होते हैं वे भव्यजनोंके हृदयोंमें संलग्न हुए कलकोंकी-प्रशानादि दोषों तथा उनके कारणीभूत ज्ञानावरणादि कोकी--शान्तिके लिये उसी प्रकार निमित्तभूत होते है जिस प्रकार कि कमलोंके अभ्युदयके लिये मूर्य (८)[यह शान भक्तियोगमें सहायक होता है ] 1 उत्तम पौर महान् पर्मतीर्यको पाकर भव्यजन दुःलॉपर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते है जिस प्रकार कि धामसे संतप्त हुए हाथी शीतल गंगादहमें प्रवेश करके अपना सब माताप मिटा डालते
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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