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________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 386 पास तक भी नहीं फटकती थी वे सर्वथा एकान्तवादके सख्त विरोधी थे और उसे वस्तुतत्त्व नहीं मानते थे। उन्होंने जिन खास कारणोंसे पहंजिनेन्द्रको अपनी स्तुतिके योग्य समझा और उन्हें अपनी स्तुतिका विषय बनाया है उनमें, उनके द्वारा एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्यायबारण भी एक कारण है। महन्तदेव अपने इन एकान्तदृष्टि-प्रतिषेधक प्रमोघ न्यागबाणोंसे-तत्त्वज्ञानके सम्यक् प्रहारोंसे-मोहशत्रुका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए भानावरणादिरूप शत्रु-समूहका नाश करके कैवल्य-विभूतिके-केवलज्ञानके साथ-साथ समवसर. णादि-विभूतिके-सम्राट् हुए है, इसीलिये समन्तभद्र उन्हें लक्ष्य करके प्रस्तुत अन्यके निम्नवाक्यमें कहते हैं कि 'पाप मेरी स्तुतिके योग्य है-पात्र है'। एकान्तदृष्टि-प्रतिषेध-सिद्धि-न्यायेषुभिर्मोहरिपु निरस्य / असिस्म कैवल्य-विभूति-सम्राट ततस्त्वमहनसि मे स्तवाहः / / इससे समन्तभद्रकी परीक्षा-प्रधानता, गुणज्ञता और परीक्षा करके सुश्रद्धाके साथ मक्ति में प्रवृत होनेकी बात पर भी स्पष्ट हो जाती है। साथ ही, यह भी मालूम हो जाना है कि जब तक एकान्तदृष्टि बनी रहती है तब तक मोह नहीं जीता जाता, जब तक मोह नहीं जीना जाता तब तक प्रात्म-विकास नहीं बनता और न पूज्यनाकी ही प्राप्ति होती है। मोहको उन न्याय-बारणोंसे जीता जाता है जो एकान्तप्टिके प्रतिरोधको सिद्ध करनेवाले है-सर्वथा एकान्तरूप दृष्टिदोषको मिटाकर अनेकान्तदृष्टिकी प्रतिष्ठारूप सम्यग्दृष्टित्वका मात्मामें संचार करनेवाले है। इससे तत्त्वज्ञान और तत्वश्रदानका महत्व सामने भाजाता है, जो अनेकान्तहप्टिके माश्रित है, और इसीमे समन्तभद्र भक्तियोगके एकान्तपक्षपाती नहीं थे। इसी तरह ज्ञानयोग तथा कर्मयोगके भी वे एकान्त-पक्षपाती नहीं थे-एकका दूसरेके साथ अकाटय सम्बन्ध मानते थे। शान-योग जिस समीचीन ज्ञानाम्यासके द्वारा इस संसारी जीवात्माको अपने शुद्धस्वरूपका, परस्पका, परके सम्बन्धका, मम्बन्धसे होनेवाले विकारका-दोषका अथवा विभावपरिणतिका-विकारके विशिष्ट कारणोंका और उन्हें दूर करने, निर्विकार (निर्दोष ) बनने, बन्धनरहित (मुक्त) होने तथा अपने निजरूपमें
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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