________________ * 388 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश है / समन्तभद्र ऐसी ही विवेकवती सुश्रदासे सम्पन्न थे। पन्धी भक्ति वास्तवमें उस फलको फल ही नहीं सकती जो भक्तियोगका लक्ष्य और उद्देश्य है। इसी भक्त्यर्पणाकी बातको प्रस्तुत ग्रन्थमें एक दूसरे ही तुंगसे व्यक्त किया गया है और वह इस प्रकार है अतएव ते बुधनुतस्य चरित-गुणमतोदयम / न्यायविहितमवधार्य जिने स्वयि सुप्रसन्नमनसः स्थिता षयम् / / इस वाक्यमें स्वामी समन्तभद्र यह प्रकट करते है कि 'हे दुषजनस्तुत. जिनेन्द्र ! मापके चरित गुण पोर अद्भुत उदयको न्यायविहित-युक्तियुक्तनिश्चय करके ही हम बड़े प्रसन्नचित्तसे पापमें स्थित हुए है-मापके भक्त बने है और हमने पापका प्राश्रय लिया है।' इससे साफ़ जाना जाता है कि समन्तभद्रने जिनेन्द्रके चरित गुणकी और केवलज्ञान तथा समवसरणादि-विभूतिके प्रादुर्भावको लिये हुए प्रभुत उदयकी पांच की है-परीक्षा की है-और उन्हें न्यायकी कसोटीपर कसकर ठीक एवं युक्तियुक्त पाया है तथा अपने प्रात्मविकासके मागमें परम-सहायक समझा है, इसीलिये वे पूर्ण-हृदयसे जिनेन्द्र के भक्त बने है और उन्होंने अपनेको उनके चरण शरणमें मर्पण कर दिया है / अत: उनका भक्तिमें कुलपरम्परा, रूढिपालन और कृत्रिमता (बनावट-दिखावट )-जैसी कोई बात नहीं थी-वह एक दम शुद्ध विवेकसे संचालित यी मोर ऐसा ही भक्तियोगमें होना चाहिये / हाँ, समन्तभद्रका भक्तिमार्ग, जो उनके स्तुति-प्रन्योंसे भले प्रकार जाना जाता है, भक्तिके सर्वथा एकान्तको लिये हुए नहीं है। स्वयं समन्तभद्र भक्ति. योग, ज्ञानयोग भोर कर्मयोग तीनोंकी एक मूर्ति बने हुए थे-इनमेंसे किसी एक ही योगके वे एकान्त पक्षपाती नहीं थे। निरी या कोरी एकान्तता. तो उनके . .जो एकान्तता नयोंके निरपेक्ष व्यवहारको लिए हुए होती है उसे 'निरी' 'कोरी' अथवा 'मिथ्या' एकान्तता कहते है / समन्तभद्र इस मिथ्याएकान्ततासे रहित थे; इसीसे 'देवागममें, एक पापत्तिका निरसन करते हुए, उन्होंने लिखा है-"न मिथ्र्यकान्तताऽस्ति नः / निरपेक्षा नवा मिया: सापेक्षा पस्तु तेश्यकृत् // "