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________________ समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र 387 सदा नम्रीभूत रहते 164 (113) / इन्हीं सब बातोंको लेकर स्वामी समन्तभद्रने अपनेको महंजिनेन्द्रकी भक्ति के लिए अर्पण कर दिया था। उनकी इस भक्तिके ज्वलन्त रूपका दर्शन स्तुति विद्याके निम्न पचमें होता है, जिसमें वे वीरबिनेन्द्रको लक्ष्य करके लिखते है 'हे भगवन् मापके मसमें प्रथवा आपके विषयमें मेरी सुश्रद्धा है-अन्ध श्रद्धा नहीं; मेरी स्मृति भी मापको ही अपना विषय बनाये हुए है-सदा मापका ही स्मरण किया करती है; में पूजन भी प्रापका ही करता हूँ, मेरे हाथ भापको ही प्राणामांजलि करने के निमित्त है, मेरे कान पापकी ही गुण-कथाको सुनने में लीन रहते है, मेरी प्रा प्रापके ही सुन्दर रूपको देखा करती है, मुझे जो व्यसन है वह भी प्रापकी सुन्दर स्तुतियोके रचने का है और मेरा मस्तक भी पापको ही प्रणाम करने में तत्पर रहता है / इस प्रककारी चूंकि मेरी सेवा है-में निरन्तर ही पापका इस तरह माराधन किया करता हूं- इसीलिए है तेजःपते ! (केवलज्ञानस्वामिन् ) मैं तेजस्वी हूं, सुजन है और सुकृति (पुण्यवान ) हूँ सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरांप त्वय्यर्चनं चाऽपि ते हम्तावजलये कथा-श्रुति-रतः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते / सुम्तुत्यां व्यसन शिरोनतिपरं सेवेटशी येन ते तेजस्वी सुजनोऽहमेव मुकृती तेनैव तेजःपते // 114 // यहां सबसे पहले 'सुत्र / ' को जो बात कही गई है वह बड़े महत्वकी है मोर प्रगनी सब बातों अथवा प्रवृत्तियों की जान-प्राण जान पड़ती है। इससे जहाँ यह मालूम होता है कि समन्तभद्र जिनेन्द्रदेव तथा उनके शासन मत के विषयमें अन्धश्रद्धालु नहीं थे वहाँ यह भी जाना जाता है कि भक्तियोगमें पधश्रताका ग्रहण नहीं है-उसके लिये सुश्रना चाहिये, जिसका सम्बन्ध विवेकसे - -- - .. mummenst... ----- -mawwamirman 1. प्रज्ञा सा स्मरतीति या तव शिरस्तचन्नतं हे पदे जन्माद: सपलं परं भवभिदी यत्राधिवे ते पड़े। मांगल्यं च सयो.रसस्तव मते गी: सैव या स्वा शुदे .. तेशा ये प्रणता जनाः कमयुगे देवाधिदेवस्य ते // 113 // ". : .
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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