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________________ 386 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश नहीं होता कि वीतरागदेव भक्तकी प्रार्थनासे द्रवीभूत होकर अपनी इच्छाशकि एवं प्रयत्नादिको काममें लाते हुए स्वयं उसका कोई काम कर देंगे अथवा दूसरोंसे प्रेरणादिके द्वारा करा देंगे / ऐसा माशय मसम्भाव्यको संभाव्य बनाने-जसा है और देवके स्वरूपसे अनभिज्ञता व्यक्त करता है। प्रस्तु, प्रार्थनाविषयक विशेष ऊहापोह स्तुतिविद्याकी प्रस्तावना या तद्विषयक निबन्धमें वीतरामसे प्रार्थना क्यों ?' इस शीर्षकके नीचे किया गया है और इसीलिए उसे वहींसे जानना चाहिये। इस तरह भक्तियोग, जिसके स्तुति, पूजा, वन्दना, माराधना, शरणागति, भजन-स्मरण और नामकीर्तनादिक अंग है, प्रात्मविकासमे सहायक है / और इसलिए जो विवेकी जन प्रथवा बुद्धिमान पुरुष मात्मविकासके इच्लुक तथा अपना हितसाधनमें सावधान है वे भक्तियोगका माश्रय लेते है। इसी बातको प्रदर्शित करनेवाले ग्रन्थके कुछ वाक्य इस प्रकार है 1. इति प्रभो ! लोक-हितं यतो मतं ___ ततो भवानेव गतिः सता मतः (28) / 2. ततः स्वनिश्रेयस-भावना-परै बुधप्रवेकैर्जिन ! शीतलेडयसे (50) / 3. ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैपिणः (35) / 4. तस्माद्भवन्तमजमप्रतिमेयमार्या: स्तुत्यं स्तुवन्ति सुधियः स्वहितंकतानाः (85) / 5, स्वार्थ-नियत-मनसः सुधियः प्रणमन्ति मन्त्रमुखरा महर्षयः (124) / स्तृतिविद्यामें तो बुद्धि उसीको कहा है जो जिनेन्द्र का स्मरण करती है, मस्तक उसीको बतलाया है जो जिनेन्द्र के पदों में नत रहता है, सफलजन्म उसीको घोषित किया है जिसमें संसार-परिभ्रमणको नष्ट करनेवासे जिन-चरणोंय प्राश्रय लिया जाता है, वाणी उसीको माना है जो जिनेन्द्रका स्तवन (गुणकीर्तन) करती है, पवित्र उसीको स्वीकार किया है जो जिनेन्द्रके मतमें रत है और पंडितवन उन्हींको अंगीकार किया है. जोगिन परणों
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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