________________ 385 समन्तभद्रका स्वयम्भूस्तोत्र माराधन करनेसे-दुःखोंका भय और कोका क्षयादिक सुख-साध्य होता है। यही भाव समन्तभद्रकी प्रार्थनाका है। इसी भावको लिए हुए ग्रन्थमें दूसरी प्रार्थनाएं इस प्रकार है "मति-प्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ !!" (25) "मम भवताद् दुरितासनादितम्" (105) "भवतु ममाऽपि भवोपशान्तये' (115) परन्तु ये ही प्रार्थनाएं जब जिनेन्द्रदेवको साक्षातरूपमें कुछ करने-कराने के लिये प्रेरित करती हुई जान पड़ती है तो वे प्रल कृतरूपको धारण किये हुए होती है। प्रार्थनाके इस अलंकृतरूपको लिये हुए जो वाक्य प्रस्तुत ग्रन्थमें पाये जाते है वे निम्न प्रकार है 1. पुनातु चेतो मम नाभिनन्दनः (5) 2. जिनः श्रिय मे भगवान विधत्ताम् (10) 3. ममाऽऽर्य देया: शिवतातिमुच्चैः (15) 4. पूयात्पवित्रो भगवान् मनो में (40) 5. श्रेयसे जिनयुप ! प्रसीद नः (75) ये सब प्रार्थनाएँ चित्तको पवित्र करने, जिनधी तथा शिवसन्ततिको देने पौर कल्याण करने की याचनाको लिये हुए है, मात्मोत्कर्प एवं ग्रामविकासको लक्ष्य करके की गई हैं, इनमें प्रमंगतता तथा प्रभाव-जंसी कोई बात नही है-सभी जिनेन्द्र देवके सम्पर्क तथा शरण में प्रानमे स्वय सफल होने वाली अथवा भक्ति उपासनाके द्वारा सहजसाध्य है - और इमलिये अलंकारकी भापामे की गई एक प्रकारको भावनाएँ दी है। इनके ममंको अन्यके अनुवादमे स्पष्ट किया गया है। वास्तवमें परम वीतरागदेवसे विवेकी जनकी प्रार्थनाका प्रथं देवके समक्ष अपनी भावनाको व्यक्त करना है प्रषात यह प्रकट करना है कि वह मापके भरण-शरण एवं प्रभाव में रहकर भोर कुछ पदार्थपाठ लेकर प्रात्मशक्तिको जागृत एवं विकसित करता हुमा मपनी उस इच्छा, कामना या भावनाको पूरा करने में समर्थ होना चाहता है / उसका यह प्राशय कदापि