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________________ 384 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सुखका संचार करने मथवा उन्हें शान्ति-सुखरूप परिणत करने में सहायक एवं निमित्तभूत हैं। प्रतः (इस शरणागतिके फलस्वरूप) वे शान्तिजिन मेरे संसार-परिभ्रमणका अन्त और सांसारिक क्लेशों तथा भयोंकी समातिमें कारणीभूत होंवें।' ___यहां शान्तिजिनको शरणागतोंकी शान्तिका जो विधाता ( कर्ता) कहा है उसके लिये उनमें किसी इच्छा या तदनुकूल प्रयत्नके प्रारोपकी जरूरत नहीं है, वह कार्य उनके 'विहितात्म-शान्ति' होनेसे स्वयं ही उस प्रकार हो जाता है जिस प्रकार कि अग्निके पास जानेसे गर्मीका पोर हिमालय या शीतप्रधान प्रदेशके पास पहुंचनेसे सर्दीका संचार अथवा तद् प परिणमन स्वयं हुमा करता है और उसमें उस अग्नि या हिममय पदार्थकी इच्छादिक-जैसा कोई कारण नहीं पड़ता। इच्छा तो स्वयं एक दोष है और वह उस मोहका परिणाम है जिसे स्वयं स्वामीजीने इस ग्रन्यमें 'अनन्तदोषाशय-विग्रह' (66) बतलाया है / दोषोंकी शान्ति हो जानेसे उसका अस्तित्व ही नहीं बनता। और इसलिए अहंन्तदेवमें विना इच्छा तथा प्रयत्नवाला कर्तृत्व सुघटित है। इसी कर्तृत्वको लक्ष्यमें रखकर उन्हें 'शान्तिके विधाता' कहा गया है-इच्छा तया प्रयत्नवाले कर्तृत्वकी दृष्टिसे वे उसके विधाता नहीं है। और इस तरह कर्तृत्व-विषय में अनेकान्त चलता हैसर्वथा एकान्तपक्ष जनशासनमें ग्राह्य ही नहीं है / यहां प्रसंगवश इतना और भी बतला देना उचित जान पड़ता है कि उक्त पद्यके तृतीय चरणमें सांसारिक क्लेगों तथा भयोंकी शान्तिमें कारणीभूत होनेकी जो प्रार्थना की गई है व जंनी प्रार्थनाका मूलरूप है, जिसका और भी स्पष्ट दर्शन नित्य की प्रार्थनामें प्रयुक्त निम्न प्राचीनतम गाथा में पाया जाता है दुक्ख-खो कम्म-स्वरो समाहि-मरणं च बोहिलाही य / मम होउ तिजगबंधव ! तव जिणवर चरण-सरणेण // इसमें जो प्रार्थना की गई है उसका रूप यह है कि-हे त्रिजगतके (निनि'मिड) बन्बु जिनदेव ! पापके चरण-शरणके प्रसादमे मेरे दुःखोंका क्षय, कर्मोका क्षय, समाधिपूर्वक मरण और बोषिका-सम्यग्दर्शनादिकका-लाम होवे / ' इससे यह प्रार्थना एक प्रकारसे प्रारमोत्कर्षकी भावना है और इस बातको सूक्ति करती है कि जिनदेवकी चरण प्रात होनेसे प्रसन्नतापूर्वक जिनदेवके चरणोंका
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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