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________________ तिले यपएणती और यतिवृषभ बाद जब प्रेमीजीको जयधवलाका वह कथन पूरा मिल गया जिसका एक अंश 'पुरणो तामो' से प्रारम्भ करके मैंने अपने उक्त लेखमें दिया था और जो अधिकांशमें ऊपर उद्धृत किया गया है तब ग्रन्थ छप चुकनेपर उसके परिशिष्टमें मापने उम कथनको देते हुए स्पष्ट सूचित किया है कि "नागहस्ति और आर्यमंक्षु गुग्णधरके साक्षात् शिष्य नहीं थे।" परन्तु इस सत्यको स्वीकार करनेपर उनकी उस दूमरी युक्तिका क्या रहेगा, इस विषयमें कोई सूचना नहीं की, जब कि करनी चाहिये थी। स्पष्ट है कि उनकी इस दूसग युक्निमें तब कोई सार नही रहता और कुन्दकुन्द, द्विविधसिदान्तमें चूणिका अन्तर्भाव न होनेसे, पनिवृषभमे बहुत पहलेके विद्वान भी हो मकते है / अब रही प्रेमीजीकी नीमरी युक्तिकी बात, उमके विषयमें मैने अपने उक्त लेबमे यह बतलाया था कि नियममारकी उम गाथामें प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेम' पदका अभिप्राय मर्वनन्दी के उक्त लोकविभागमे नहीं है और न हो मकता है; बल्कि बहवचनान्न पद होने से वह 'लोकविभाग' नामके किसी एक प्रन्यविशेषका भी वाचक नहीं है / वह तो लाकविभाग-विषयक कथन-वाले अनेक ग्रयो अथवा प्रकरणों के मकेनको लिए हुए जान पड़ता है और उसमें खुद कुन्दकुन्दके 'लोयपार'-'मंठागा पाह' जैसे ग्रन्य तथा दूसरे 'लोकानुयोग' अथवा लोकाउलीक के विभागको लिये हुए करगानुयोग-सम्बन्धी ग्रन्थ भी मामिल किये जा सकते है / और दलिये 'लोयविभागेम' इस पदका जो अर्थ कई शताब्दियो पीछे के टीकाकार पराप्रभने 'लोकविभागभिधानपरमागमे ऐसा एकवननात किया है. वह टोक नहीं है / साथ ही यह बतलाया था कि उपलब्ध लोकविभाग, जो कि ('उन च' वाक्यों को छोड़कर) सर्वनन्दीके प्राकृत लोकविभागका ही पनुवादिन मस्कृतरूप है, नियंचोंके उन चौदह भेदोंके विस्तार कथनका कोई पता भी नही, जिसका उल्लेख नियमसारकी उक्त गाथामे किया गया है / और इसमें मेरा उक्त कथन अथवा स्पष्टीकरण और भी मेरे इम विवेचनसे, जो 'जैनजगत' वर्ष 8 अंक के एक पूर्ववर्ती लेख में प्रथमतः प्रकट हुपा था, हा० ए० एन० उपाध्ये एम० ए० ने प्रवचनसारकी प्रस्तावना (पृ० 22, 23) में अपनी पूर्ण सहमति व्यक्त की है।
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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