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५० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश इसी नामसे इनकी वंशपरम्परा चली है अथवा 'कुन्दकुन्दान्वय' स्थापित हुमा है, जो अनेक शाखा-प्रशाखामोंमें विभक्त होकर दूर दूर तक फैला है । मर्कराके ताम्रपत्रमें, जो शक संवत् ३८८ में उत्कीर्ण हुआ है, इसी कोण्डकुन्दान्वयकी परम्परामें होने वाले छह पुरातन आचार्योंका गुरु-शिष्यके क्रमसे उल्लेख है। ये मूलसंघके प्रधान आचार्य थे, प्रतात्मा थे, सत्संयम एवं तपश्चरणके प्रभावसे इन्हें चारण-ऋद्धिकी प्राप्ति हुई थी और उसके बलपर ये पृथ्वी से प्रायः चार अंगुल ऊपर अन्तरिक्षमें चला करते थे। इन्होंने भरतक्षेत्रमें श्रुतकी-जैन प्रागमकी-प्रतिष्ठा की है-उसकी मान्यता एवं प्रभावको स्वयंके आचरणादिद्वारा (खुद आमिल बनकर) ऊँचा उठाया तथा सर्वत्र व्याप्त किया है अथवा यों कहिये कि आगमके अनुसार चलनेको खास महत्व दिया है, ऐसा श्रवणबेलगोलके शिलालेखों आदिसे जाना जाता है । ये बहुत ही प्रामाणिक एवं प्रतिष्ठित प्राचार्य हुए हैं। सभवत: इनकी उक्त श्रुत-प्रतिष्ठाके कारण ही शास्त्रसभाकी आदिमें जो मंगलाचरण 'मङ्गलं भगवान वीरो' इत्यादि किया जाता है उस में 'मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यों' इस रूपसे इनके नामका खास उल्लेख है।
आपकं उपलब्ध ग्रन्थोंका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
१ प्रवचनसार, २ समयसार, ३ पंचास्तिकाय-ये तीनों ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थोंमें प्रधान स्थान रखते हैं, बड़े ही महत्वपूर्ण है और अखिल
* देखो, कुर्ग-इन्स्क्रिपशन्सका निम्न अंश :- (E. C. I.)
.......श्रीमान् कोंगणि-महाधिराज अविनीतनामधेयदत्तस्य देसिगगणं कोण्डकुन्दान्वय-गुणचन्द्रभटारशिष्यस्य अभयणंदिभटारतस्य शिष्यस्य शीलभद्र भटार-शिष्यस्य जनाणंदिभटार-शिष्यस्य गुणणंदिभटार-शिष्यस्य वन्दरणन्दिभटारगर्गे अष्ट-अशीतिउत्तरस्य त्रयो-शतस्य सम्वत्सरस्य माघमासे......."
+ वन्द्यो विभु वि न कैरिह कौण्डकुन्दः कुन्दप्रभा-प्रणयि-कीर्तिविभूषिताशः । यश्चारु-चारण-काराम्बुज़-चञ्चरीकश्चक्रे-श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ॥
-श्र० शि० ५४ रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यंजयितु यतीशः । रजः पदं भूमितलं विहाय वचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।।-श्र० शि० १०५