________________ 674 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश के लिये 'यापनीय' संघको दान किया गया है / पत्रके अन्तमें इस दानको अपहरण करनेवालेके वास्ते वही कसम दो है अथवा वही विधान किया है जैसा कि पहले नम्बरके पत्रसबंधमें ऊपर बतलाया गया है। 'उक्त' पद्य भी वे ही चारों कुछ क्रमभंगके साथ दिये हुए हैं। और उनके बाद दो पक्षों में इस दानका फिरसे खुलासा दिया है, जिसमें देववर्माको रणप्रिय, दयामृतमुखास्वादनसे पवित्र, पुण्य गुणोंका इच्छुक और एक वीर प्रकट किया है। अन्तमें महन्तकी स्तुतिविषयक प्रायः वही पद्य है जो पहले नम्बरके पत्रके शुरूमें दिया है। इस पत्र में श्रीकृष्ण वर्माको 'मश्वमेध यज्ञका कर्ता और शरदऋतुके निर्मल प्राकाशमें उदित हए चन्द्रमाके समान एक छत्रका धारक. अर्थात् एक छत्र पृथ्वीका राज्य करनेवाला लिखा है। मूल (Text) सिद्धम् जयन्य हस्त्रिलोकेग: सर्वभूतहिते रतः गगारिहरोनन्नोनन्तज्ञानहगीश्वरः स्वस्ति विजयवैजनत्या स्वामिमहासेनमातृगणानुद्धचाताभिपिकानां मानव्यसगोत्राण हारितिपुत्रागां अङ्गिरसा प्रतिकृतम्बाध्यायचर्चकाना सद्धम्मसदम्यानां कदम्बानां अनेकजन्मान्तरोपार्जिनविपुलपुण्यम्कंधः आहबार्जितपरमरुचिरहढसत्वः : विशुद्धान्वयप्रकल्यानेकपुरुषपरम्परागते जगप्रदीपभूते महन्त्यदितादित काकुस्थान्वये श्रीशान्तिवम्मतनयः श्रोमृगशवरवा प्रात्मनः राज्यस्य तृतीय वर्षे पोषसंवत्सरे कार्तिकमासे बहुल पक्षे दशम्यां तिथौ उत्तराभाद्रपद नक्षत्र वृहत्परलूरे (?) त्रिदशमुकुट परिधृष्टचारचरणेभ्यः ॐ परमाद वेभ्यः संमार्जनापनेपनाभ्यच्चनभग्नसंस्कारमहिमायं प्रामापरदिग्विमागसीमाभ्यन्तरे राजमानेन चत्वारिंशनि + मूलमें ऐसा ही है, यह 'वैजयन्त्या' होना चाहिये। * इनपत्रोंमें यह एक खास बात है कि जहाँ विस्वाक्षरोंका इतना अधिक प्रयोग किया गया है वहां 'सत्व' और 'तत्व' में 'त' प्रक्षरको दित्व नहीं किया गया है। मूलमें ऐसा ही है।