________________ --- -- --harmir... कदम्बवंशीय राजाओंके तीन ताम्रपत्र वर्मा' और 'श्रीविजयशिवमृगेशवर्मा' इन दोनों नामोंमें परस्पर बहुत बड़ा अन्तर है। दूसरे, पहले नम्बरके पत्रमें 'मात्मनः राज्यस्य तृतीये वर्षे पौष संवत्सरे' इत्यादि पदोंके द्वारा जैसा स्पष्ट उल्लेख किया गया है वैसा इस पत्र में नहीं है, इस पत्रके समय-निर्देशका ढंग बिल्कुल उससे विलक्षण है / 'संवत्सरः चतुषः, वर्षापक्ष: अष्टमः, तिथि: पौर्णमासी,' इस कथनमें 'चतुर्थ' संभवतः 60 सवत्सरोंमेसे चौथे नम्बरके 'प्रमोद' नामक संवत्सरका द्योतक मालूम होता है। तीसरे, पत्र नं. 1 में दानारने बड़े गौरवके साथ अनेक विशेषगोंसे युक्त जो अपने 'काकुत्स्थान्वय' का उल्लेख किया है और साथ ही अपने पिता का नाम भी दिया है, वे दोनों बाने इस पत्र में नही है जिनके, एक ही दातार होने की हालतमें, छोड़े जाने की कोई वजह मालूम नहीं होती। चौथे, दम पत्र प्रहन्तकी स्तुतिविषयक मगलाचरण भी नहीं है, जमा कि प्रथम पत्रमें पाया जाता है। इन सब बानास ये दोनों पत्र एक ही राजाके पत्र मालूम नहीं होते / इस पत्र न 2 मे विजयशिवमृगेशवमकि जो विशेषण दिये है उनसे यह भी पाया जाता है कि 'यह राजा उभय-लोककी दृष्टि से प्रिय और हितकर ऐसे भनेक शास्त्रोकं अर्थ नया तत्त्वविनानके विवेचन में बड़ा ही उदारमति या, नविनय में कुशल था और ऊचे दर्जे के बुद्धि, धैर्य, वीर्य तथा त्यागसे युक्त था / इमने व्यायामकी भूमियोंमे यथावत् परिश्रम किया था, अपने भुजबल तथा पराक्रममे किसी बड़े भारी मंग्राम में विपुल ऐश्वर्य की प्राप्ति की थी, यह देव, द्विज, गुरु पोर साधुजनोंको निन्य ही गो, भूमि, हिरण्य, रायन (शय्या). पाच्छादन (वस्त्र) अन्नादि अनेक प्रकारका दान दिया करता था; इसका महाविमा विद्वानो, महदो पौर म्व जनोंक द्वारा सामान्य रूपसे उपभुक्त होता था; पोर यह पादिकालके राजा ( संभवतः भरतचक्रवर्ती ) के वृत्तानुसारी धर्मका महाराजा था।' दिगम्बर मोर वेताम्बर दोनों ही मंप्रदायोंके जैनमाघुपोंको यह राजा ममानदृष्टिमे देखता था. यह बात इस दानपत्रमे बहुत ही स्पष्ट है। पत्र न ३-यह दानपत्र काम्बोंके धर्ममहाराज श्रीकृष्णवर्माके प्रियपत्र 'देवया ' नामके युवराजकी तरफमे लिखा गया है और इसके द्वारा 'विपवेत' के ऊपरका कुम क्षेत्र प्रहन्त भगवान्के चैत्यालयको मरम्मत, शोर महिमा