________________ समन्तभद्रकी स्तुति विद्या मन-वचन-कायरूप योगको स्तुत्यके प्रति एकाग्र करनेकी कला पानी चाहिये / इसी योग-साधनारूप कलाके द्वारा स्तुत्यमें स्थित प्रकाशसे अपनो स्नेहसेभक्तिरससे-भीगी हुई प्रात्म-बत्तीको प्रकाशित और प्रज्वलित किया जाता है। वस्तुतः पुरातन प्राचार्योन-प्रङ्ग-पूर्वादिके पाठी महर्षियोंने-वचन और कायको अन्य व्यापारोंमे हटाकर स्तुत्य (उपास्य ) के प्रति एकाग्र करनेको 'द्रव्यपूजा' और मनकी नाना-विकल्पजनित व्यग्रताको दूर करके उसे ध्यान तथा गुणचिन्तनादिके दाग स्तुत्यमें लीन करने को 'भावपजा' बतलाया है। प्राचीनोंकी इस द्रव्यपूजा आदिके भावको श्रीअमितगति प्राचार्यने अपने उपासकाचार ( वि० ११वी शताब्दी ) के निम्न वाक्यमें प्रकट किया है " वचाविग्रह-संकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते / तत्र मानस-संकाची भावपूजा पुरातनः / / " स्तुति-स्तोत्रादिके रूपमे ये भक्तिगट ही उस समय हमारे पूजा-पाठ थे, ऐसा उपामना-माहित्यके अनुमन्धानमे जाना जाता है। ग्राधुनिक पूजापाठोंकी तरहके कोई भी दुमरे पूजापाट उम ममयके उपलव्य नहीं है / उस समय मुमुक्षजन एकान्त-स्थानमें बैठकर प्रयवा अहत्प्रतिमा पादिके मामने स्थित होकर बड़े ही भक्तिभाव के माय बिचार-पूर्वक. इन निम्नांत्रोंको पढ़ते थे और सब कुछ भूल-भुलाकर स्तुत्यके गुगगोंमें लीन हो जाते थे। तभी अपने उद्देश्यमें सफल और अपने लक्ष्यको प्राप्त करनेमे समर्थ होते थे / ग्रन्थकारमहोदय उन्हीं मुमुक्षजनके अग्रणी थे। उन्होंने स्तुनिविद्याके मार्गको बहुत ही परिप्कृत पौर प्रशस्त किया है। वीतरागसे प्रार्थना क्यों ? स्तुतिविद्याका उद्देश्य प्रतिष्ठित होजानेपर अब एक बात और प्रस्तुत की जाती है और वह यह कि, जब वीतराग अहंन्तदेव परम उदासीन होनेसे कुछ करते-धरते नहीं तब ग्रन्थमें उनसे प्रार्थनाएँ क्यों की गई हैं मोर क्यों उनमें व्यर्थ ही मर्तृत्व-विषय-का प्रारोप किया गया है ? यह प्रश्न बडा सुन्दर है