________________ * TRIम्स: -- ' .MAHA 346 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश वह किसीकी निन्दा या अवज्ञापर कभी अप्रसन्न नहीं होता, कोप नहीं करता और न दण्ड देने-दिलाने का कोई भाव ही मनमें लाता है। निन्दा और स्तुति दोनों ही उसके लिये समान हैं, वह दोनोंके प्रति उदासीन है, और इस लिये उनसे उसका कुछ भी बनता या बिगड़ता नहीं है / फिर भी उसका एक निन्दक स्वतः दण्ड पा जाता है और एक प्रशंसक अभ्युदयको प्राप्त होता है, यह सब कर्मों और उनकी फल-प्रदान-शक्तिका बड़ा ही वैचित्र्य है, जिसे कर्मसिद्धान्तके अध्ययनसे भले प्रकार जाना जा सकता है। इसी कर्म-फल-वैचित्र्यको ध्यानमें रखते हुए स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्र में कहा है सुहृत्त्वयि श्रीसुभगत्वमश्नुते द्विपस्त्वयि प्रत्यय-वत्प्रलीयते / भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो ! परं चित्रमिदं तवेहितम् / / 6 / / 'हे भगवन् ! आप मित्र और शत्रु दोनोंके प्रति अत्यन्त उदासीन है। मित्रसे कोई अनुराग और शत्रुसे कोई प्रकारका द्वेषभाव नहीं रखते, इसीसे मित्रके कार्योंसे प्रसन्न होकर उसका भला नहीं चाहते और न शत्रुके कार्योसे अप्रसन्न होकर उसका बुरा मनाते है-, फिर भी आपका मित्र (अपने गुणानुराग, प्रेम और भक्तिभावके द्वारा ) श्रीविशिष्ट सौभाग्यको अर्थात् ज्ञानादि लक्ष्मीके प्राधिपत्यरूप अभ्युदयको प्रास होता है और एक शत्रु ( अपने गुणद्वपी परिणामके द्वारा ) 'क्विक' प्रत्ययादिकी तरह विनाशको-अपकर्षको-प्राप्त हो जाता है, यह आपका ईहित-चरित्र बड़ा ही विचित्र है !! ऐसी स्थितिमें 'स्तुति' सचमुच ही एक विद्या है। जिसे यह विद्या सिद्ध होती है वह सहज ही पापोंको जीतने और अपना प्रात्मविकाम मिद्ध करने में समर्थ होता है। इस विद्याकी सिद्धिके लिये स्तुत्यके गुणोंका परिचय चाहिये, गुणोंमें वर्द्धमान अनुराग चाहिये, स्तुत्यके गुण ही प्रात्म-गुरण है और उनका विकास प्राने प्रात्मामें हो सकता है ऐसी हुन श्रद्धा चाहिये। साथ ही, * इसीसे टीकाकारने स्तुतिविद्याको 'धन-कठिन-धातिकर्मेन्धन-दहन-समर्था' लिखा है--प्रर्थात् यह बतलाया है कि 'वह घने कठोर धातियाकर्मरूपी ईन्धनको भस्म करनेवाली समर्थ अग्नि है', और इससे पाठक ग्रन्थके प्राध्यात्मिक महत्वका कितना ही अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।