________________ 345 aanmom समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें, परमात्माकी-परम वीतराग-सर्वश-जिनदेवकी-स्तुतिको कुशल-परिणामोंकी हेतु बतलाकर उसके द्वारा कल्याणमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है। साथ ही यह भी बतलाया है कि पुण्य-गुरगोंका स्मरण प्रास्मासे पापमलको दूर करके उसे पवित्र बनाता है / और स्तुतिविद्या (114) में जिनदेवकी ऐसी सेवाको अपने 'तेजस्वी' तथा 'सुकृती' होने प्रादिका कारण निर्दिष्ट किया है। परन्तु स्तुति कोरी स्तुति, तोता-रटन्त प्रयवा रूढिका पालन-मात्र न हो कर सच्ची स्तुति होनी चाहिये-सुतिकर्ता स्तुत्यके गुणोंको अनुभूति करता हुमा उनमें अनुरागी होकर तद्रूप होने अथवा उन प्रात्मीय गुणोंको अपने में विकसित करनेकी शुद्ध-भावनासे मम्पन्न होना चाहिये, तभी स्तुतिका ठीक उद्देश्य एवं फल ( पापोंको जीतना ) घटित हो सकता है और वह ग्रन्थकारके शन्दोंमें 'जन्मागण्यशिखी' (११५)-भवभ्रमणरूप संसार-बनको दहनकरनेवाली अग्नि-तक बनकर प्रात्माके पूर्ण विकाममें सहायक हो सकती है / __और इसलिये स्तुत्यकी प्रशंसामें अनेक चिकनी-चुपड़ी बातें बनाकर उसे प्रसन्न करना और उसकी उस प्रसन्नता-द्वारा अपने लौकिक कार्योंको सिद्धकरना-कराना-जैसा कोई उद्देश्य भी यहाँ प्रभीष्ट नहीं है / परमवीतरागदेवके साथ वह घटित भी नहीं हो सकता; क्योंकि मच्चिदानन्दरूप होनेसे वह सदा ही ज्ञान तथा प्रानन्दमय है, उसमें रागका कोई अंश भी विद्यमान नहीं है, और इसलिये किसीकी पूजा-वन्दना या स्तुति-प्रशंसासे उसमें नवीन प्रसन्नताका कोई संचार नहीं होता और न वह अपनी स्तुति-पूजा करनेवालेको पुरस्कारमें कुछ देता-दिलाता ही है। इसी तरह पात्मा द्वेषांशके न रहनेसे + "स्तुति: स्तोतुः साधोः कुशलपरिणामाय स तदा भवेन्मा वा स्तुत्यः फलमपि ततस्तस्य च सतः / किमेवं स्वाधीन्याजगति सुलभे श्रायसपथे स्तुयान्न त्वा विद्वान्सततमभिपूज्यं नमिजिनम् // 11 // * "तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनाति वितं दुरिताऽजनेभ्यः / / 57 // "