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________________ 344 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश पापोंको जीते जानेका भाव यक्त किया है। परन्तु जिनस्तुतिसे पाप कैसे जीते जाते है यह एक बड़ा ही रहस्यपूर्ण विषय है / यहाँ उसके स्पष्टीकरणका विशेष अवसर नहीं है, फिर भी संक्षेपमें इतना जरूर बतला देना होगा कि जिन तीर्थकरोंकी स्तुति की गई है वे सब पाप-विजेता हुए है-उन्होंने प्रशानमोह तथा काम-क्रोधादि पापप्रकृतियोंपर पूर्णत: विजय प्राप्त की है। उनके चिन्तन और माराधनसे अथवा हृदय मन्दिरमें उनके प्रतिष्ठित (विराजमान) होनेसे पाप खड़े नहीं रह सकते-पापोंके हट बन्धन उसी प्रकार ढीले पड़ जाते हैं जिस प्रकार कि चन्दन के वृक्षपर मोरके पाने से उससे लिपटे हुए सांप ढोले पड़ जाते हैं और वे अपने विजेतासे घबराकर कहीं भाग निकलनेकी ही सोचने लगते हैं / अथवा यों कहिये कि उन पुण्यपुरुषोंके ध्यानादिकसे प्रात्माका वह निष्पाप शुद्ध स्वरूप सामने आता है जो सभी जीवोंकी मामान्य सम्पत्ति है मौर जिसे प्राप्त करने के सभी भव्य जीव अधिकारी है / उस शुद्ध स्वरूपके सामने आते ही अपनी उस भूली हुई निधिका स्मरण हो उठता है, उसकी प्राप्तिके लिये प्रेम तथा अनुगग जाग्रत हो जाता है और पाप-परिणति सहज ही छूट जाती है। अत: जिन पूनात्माओंमे वह शुद्धस्वरूप पूर्णत: विकसित हुमा है उनकी उपासना करता हुमा भव्यजीव अपनेमे उस शुद्धस्वरूपको विकसित करनेके लिये उसी तरह समर्थ होता है जिम तरह कि तलादिकमे सुसजित बसी दीपककी उपासना करती हुई उसके चरणाम जब तन्मयताकी दृष्टिम अपना मस्तक रखती है तो तद्प हो जाती है-स्वयं दीपक बनकर जगमगा उठती है / यह सब भक्ति-योगका माहात्म्य है, स्तुति-पूजा पोर प्रार्थना जिसके प्रधान अंग है / साधु स्तोताकी स्तुति कुशल-परिणामोंकी--पुण्य-प्रसाधक शुभभावोंकी-निमित्तभूत होती है और अशुभ अथवा पापकी निवृत्तिरूप वे कुशलपरिणाम ही प्रात्माके विकास में सहायक होते है / इसीसे स्वामी समन्तभद्रने - -more-mini .. .. . 8 "हतिनि त्वयि विमो ! शिथिलीभवन्ति जन्तोः क्षणेण निविदा प्रपि कर्मबन्धाः / सद्यो मुजंगमममा इव मध्यभागमन्यागते बनशिबहिनि बन्दनस्य ॥"-कल्याणमन्दिर
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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