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________________ संमन्तभद्रकी स्तुति विद्या 343 प्रत्येकके मध्य में प्रयुक्त हुआ है / इन्हींमें कवि और काव्यके नामोंको अंकित करनेवाला 116 वा चक्रवृत्त है। - अनेक पद्य ग्रन्थमें ऐसे हैं जो एकसे अधिक अलंकारोंको साथमें लिये हुए है, जिसका एक नमूना 84 वा श्लोक है, जो पाठ प्रकारके चित्रालंकारोंसे प्रलंकृत है / यह श्लोक अपनी चित्ररचनापरसे सब पोरमे समानरूपमें पढ़ा जाता है / कितने ही पद्य ग्रन्थमें ऐसे हैं जो दो-दो अक्षरोंसे बने हैं-दो व्यञ्जनाक्षरोंसे ही जिनका सारा शरीर निर्मित हुअा है / 14 वा श्लोक ऐसा है जिसका प्रत्येक पाद भिन्न प्रकारके एक-एक प्रक्षरमे बना है और वे अक्षर है क्रमशः म, न, म, त, / साथ ही, 'ततोतिता तु तेतीत' नामका 16 वा श्लोक ऐसा भी है जिसके सारे गरीरका निर्माण एक ही तकार अक्षरने हुमा है। इस प्रकार यह ग्रन्थ शब्दालंकार और चित्रालंकारके अनेक भेद-प्रभेदोंसे अलंकृत है और इमीमे टीकाकार महोदयने टीकाक प्रारंभ में ही इस कृतिको 'समस्तगुणगणीपेना' विशेषण के माथ 'सर्वालंकारभूपिना' (प्राय: सब प्रलंकारोंमे भूपिन ) लिखा है / मचमुच यह गून ग्रन्थ ग्रन्थकारमहोदयके अपूर्व काव्य-कौशल, अद्भुत व्याकरण-पाण्डित्य और अद्वितीय गन्दाधिपत्यको सूचित करता है / इमकी दुर्वाधनाका उल्नेम्व टीकाकारने 'योगिनामपि दुष्करायोगियोंके लिये भी दुर्गम ( कठिननाने बोधगम्य )-विशेपणके द्वारा किया है और माथ ही इस कृनिको 'सद्गुगाधारा' ( उत्तम गुग्गोंकी प्राधारभूत ) बतलाते हुए 'सुपद्मिनी' भी मूचित किया है और इसमे इसके अंगोंकी कोमलता, मुरभिता और सुन्दरताका भी सहज सूचन हो जाता है, जो ग्रन्थमें पद-पदपर लक्षित होती है। ग्रन्थ रचनाका उद्देश्य इस ग्रन्थको रचनाका उद्देश्य, ग्रन्थके प्रथम पद्यगे 'श्रागसां जये' वाक्यके द्वारा 'पापोंको जीतना बतलाया है और दूसरे अनेक पद्योंमे भी जिनस्तुतिसे देखो, पद्य नं० 110, 113, 114, 115, 116 / * देखो, वीरसेवामन्दिरमे प्रकाशितग्रन्थ पृष्ठ नं० 103, 104 का फुटनोट / दोनों, पद्य न० 51, 52, 55, 85, 63, 64, 67, 100, 106 /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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