________________ 342 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश कितने ही श्लोकग्रन्थमें ऐसे हैं जिनमें पूर्वार्धके विषमसंख्याअक्षरोंको उत्तरार्धके समसंख्याङ्क भक्षरोंके साथ क्रमशः मिलाकर पढ़नेसे पूर्वार्ष और उत्तरार्धक विषमसंख्याङ्कमक्षरोंको पूर्वार्धके समसंख्यांक अक्षरोंकेसाथ क्रमशः मिलाकर पढ़नेसे उत्तरार्ध हो जाता है। ये श्लोक 'मुरज' अथवा 'मुरजबन्ध' कहलाते हैं। क्योंकि इनमें मृदङ्गके बन्धनों-जैसी चित्राकृतिको लिये हुए अक्षरोंका बन्धन रक्खा गया है। ये चित्रालंकार थोड़े थोड़ेसे अन्तरके कारण अनेक भेदोंको लिये हुए है और अनेक श्लोकोंमें समाविष्ट किये गये हैं। कुछ श्लोक ऐसे भी कलापूर्ण है जिनके प्रथमादि चार चरणोंके चार आद्य प्रक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके चार अन्तिम अक्षरोंके साथ मिलाकर पढ़नेसे प्रथम चरण बन जाता है। इसी तरह प्रथमादि चरणोंके द्वितीयादि प्रक्षरोंको अन्तिमादि चरणोंके उपान्त्यादि अक्षरोंके साथ साथ क्रमश: मिलाकर पढ़नेपर द्वितीयादि चरण बनजाते है, ऐसे श्लोक 'अर्थभ्रम' कहलाते है / कुछ पद्य चक्राकृतिक रूपमें अक्षर-विन्यासको लिये हुए है और इससे उनके कोई कोई अक्षर चक्र में एक वार लिखे जाकर भी अनेक वार पढ़ने में माने है। उनमेंमे कुछमे यह भी खूबी है कि चक्र गर्भवृन्में लिखा जानेवाला जो यादि प्रक्षर है वह चक्रकी चार महा दिशात्रोंमें स्थित चारों प्राओंके अन्त में भी पड़ता है / 111 और 112 नम्बरके पद्योंमें तो वह स्खूबी और भी बढी चढ़ी है / उनकी छह प्रारों और नव वलयोंवाली चकरचना करनेपर गर्भम अथवा केन्द्रवृत्तमे स्थित जो एक अक्षर ( 'न' या 'र') है वही छहों पारोके प्रथम चतुर्थ तथा सप्तम वलयमें भी पड़ता है,और इसलिए चक्रमें 16 बार लिखा जाकर 28 बार पढ़ा जाता है / पद्यमें भी वह दो-दो अक्षरोंके अन्त गलसे 8 बार प्रयुक्त हुमा है / इनके सिवाय, कुछ चक्रवत्त ऐसे भी है जिनमें प्रादि प्रक्षरको गर्भम नहीं रक्खा गया बल्कि गर्भ में वह प्रक्षर रक्खा गया है जो प्रथम तीन चरमोमेंसे +देखो श्लोक नं० 3. 4, 18, 19, 20, 21, 27. 36, 43, 44, 56, 10, 12 - देखो, श्लोक 26, 53, 54 प्रादि / देखो, क्लोक 22, 23, 24 /