________________ समन्तभद्रको स्तुतिविद्या 341 यह नाम सार्थक जान पड़ता है / 'शत' और 'शतक' दोनों एकार्थक है प्रतः 'जिनस्तुतिशत' को जिनस्तुतिशतक' भी कहा जाता है / 'जिनस्तुतिशतक' का बादको संक्षितल्प 'जिनशतक' होगया है और यह ग्रंथका तीसरा नाम है, जिसे टीकाकारने 'जिनशतकनामेति' इस वाक्यके द्वारा प्रारम्भमें ही व्यक्त किया है। साथ ही, 'स्तुतिविद्या' नामका भी उल्लेख किया है / यह ग्रन्थ अलङ्कारोंकी प्रधानताको लिये हुए है और इसलिये अनेक ग्रन्थप्रतियोंमें इसे 'जिनशतालङ्कार' अथवा 'जिनमतकालंकार' जैसे नामसे भी उल्लेखित किया गया है,और इमलिये यह अन्यका चौथा नाम अथवा ग्रन्यनामका चौथा संस्करण है। ग्रन्थ-परिचय समन्तभद्र--भारतीका अंगरूप यह अन्य जिन-स्तुति-विषयक है / इसमें वृषभादि चविंशतिजिनोंकी-चौबीस जैन तीर्थंकरोंकी-अलंकृत भाषामें बड़ी ही कलात्मक स्तुति की गई है। कहीं श्लोकके एक चरणको उलटकर रख देनेसे दूसरा चरण छ, पूर्वाधको उलटकर रख देनेसे उत्तरार्ष और समूचे श्लोकको उलटकर रख देनेसे दूसरा श्लोक 1 बन गया है। कहीं-कहीं चरणके पूर्वाध. उत्तराधमें भी ऐसा ही क्रम रखा गया + है और कहीं-कहीं एक चरणमें क्रमश: जो प्रक्षर है वे ही दूसरे चरण में है, पूर्वाधमें जो अक्षर है वे ही उत्तरार्धमें है और पूर्ववर्ती इलोकमें जो अक्षर है वे ही उत्तरवर्ती श्लोकमें है, परन्तु प्रर्थ उन सबका एक-दूसरेसे प्राय: भिन्न है और वह अक्षरोंको सटा कर तथा अलगसे रखकर भिन्न-भिन्न शब्दों तथा पदोंकी कल्पना-द्वारा संगठित किया गया है। लोक नं० 102 का उत्तरार्ध है-'श्रीमते वर्तमानाय नमो नमितविद्विषे। अगले दो श्लोकोंका भी यही उत्तराधं इसी प्रक्षर-कमको लिये हए है; परन्तु वहाँ पक्षरोंके विन्यासभेद मोर पदादिककी जुदी कल्पनापोस पर्ष प्रायः बदल गया है। लोक 10,83,88, 65 लोक 57, 66,981 लोक 86, 87 + श्लोक 85, 63, 64 / देलो, श्लोक 5, 15, 25, 52, 11-12, 16-17, 67-38, 46-47, 76-77, 93-94, 186-107 /