________________ समन्तभद्रकी स्तुतिविद्या ग्रन्थ-नाम___ इस ग्रन्यका मूलनाम 'स्तुतिविणा' है; जैसा कि मादिम मंगलपमें प्रयुक्त हुए 'स्तुतिविद्यां प्रसाधये' इस प्रतिशावाक्यसे जाना जाता है। ग्रन्थका 'गत्वैकस्तुतमेव' नामक जो मन्तिम पच कवि और काव्यके नामको लिए हुए एक चक्रवृत्तरूपमें चित्रकाव्य है उसकी छह भारों और नव वलयोंबानी चित्ररचनापरसे प्रन्धका नाम 'जिनस्तुतिशत निकलता है, जैसा कि टीकाकाग्ने व्यक्त किया है और इसलिए प्रपका दूसरा नाम 'जिनम्तुतिशतं' है जो ग्रन्थकार. को इष्ट रहा मालूम होता है / यह नाम जिनस्तुतियोंके रूपमें स्तुतिविचारे पचोंकी प्रधान संख्याको साथमें लिये हुए है और इसलिये इसे स्तुतिसम्यापरक नाम समझना चाहिये / जो प्रबनाम संख्यापरक होते है उनमें 'शत' की संख्याके लिये ऐसा नियम नहीं है कि संपकी पथसंस्था पूरी सो ही हो वह दो चार दस बीस प्रषिक भी हो सकती है, जैसे समाविशतककी पयसंख्या 105 मोर भूधर-बैनशतकी 107 है / और भी बहतसे शत-संख्यापरक प्रन्यनामोका ऐसा ही हाल है / भारतमें बहुत प्राचीनकालसे मुखपीनोंके विषय में ऐसा दस्तूर रहा है कि वे सो की संख्या अथवा करके सरीदी जानेपर कुछ अधिक संख्यामें ही मिमती है जैसे माम कहीं 112 चीर कहीं 120 की संख्यामें मिलते है इत्यादि / शतक अन्योंमें भी अन्धकारोंकी प्राय: ऐसी ही नीति रही है उन्होंने 'शत' कहकर भी सतसे प्रायः च प्रषिक पर ही अपने पाठकोंको प्रदान किये है। इस दृष्टि से प्रस्तुत सन्धर्म 116 पर होते हुए भी उसका 'बिनस्तुतिशत