________________ 348 - जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश और सभीके लिये इसका उत्तर बांछनीय एवं जाननेके योग्य है। प्रतः अब इसीके समाधानका यहां प्रयत्न किया जाता है। ___ सबसे पहली बात इस विषयमें यह जान लेनेकी है कि इच्छापूर्वक अपवा बुद्धिपूर्वक किसी कामको करनेवाला ही उसका कर्ता नहीं होता बल्कि अनिच्छापूर्वक मथवा अबुद्धिपूर्वक कार्य करनेवाला भी कर्ता होता है / वह भी कार्यका कर्ता होता है जिसमें इच्छा या बुद्धिका प्रयोग ही नहीं बल्कि सद्भाव (अस्तित्व) भी नहीं अथवा किसी समय उसका संभव भी नहीं है। ऐसे इच्छाशून्य तथा बुद्धिविहीन कर्ता कामोंके प्रायः निमित्तकारण ही होते है और प्रत्यक्षरूपमें उनके कर्ता जड और चेतन दीनों ही प्रकारके पदार्थ हुमा करते है। इस विषयके कुछ उदाहरण यहां प्रस्तुत किये जाते है, उनपर जरा ध्यान दीजिये (1) 'यह दवाई अमुक रोगको हरनेवाली है।' यहां दवाईमें कोई इच्छा नहीं और न बुद्धि है, फिर भी वह रोगको हरनेवाली है-रोगहरण कार्यकी कर्ता कही जाती है; क्योंकि उसके निमित्तमे रोग दूर होता है / (2) 'इस रसायनके प्रसादसे मुझे नीगेगताकी प्राप्ति हुई। यहाँ 'रसायन' जड प्रौषधियोंका समूह होनेसे एक जड पदार्थ है; उसमें न इच्छा है, न बुद्धि और न कोई प्रसन्नता; फिर भी एक रोगी प्रसन्नचित्तसे उस रसायनका सेवन करके उसके निमित्तसे प्रारोग्य-लाभ करता है और उम - रसायनमें प्रसन्नताका प्रारोप करता हुमा उक्त वाक्य कहता है / यह सब लोक-व्यवहार है अथवा अलंकारोंकी भाषामें कहने का एक प्रकार है / इसी तरह यह भी कहा जाता है कि 'मुझे इस रसायन या दवाईने अच्छा कर दिया' जब कि उसने बुद्धिपूर्वक या इच्छापूर्वक उसके शरीर में कोई काम नहीं किया। हां, उसके निमित्तसे शरीरमें रोगनाशक तथा प्रारोग्यवर्धक कार्य जरूर हुमा है और इसलिये वह उसका कार्य कहा जाता है / (3) एक मनुष्य छत्री लिये जा रहा था और दूसरा मनुष्य विना छत्रीके सामनेसे पा रहा था। सामने वाले मनुप्यकी दृष्टि बब बत्रीपर पड़ी तो उसे अपनी खत्रीकी याद मागई प्रोर यह स्मरण हो पाया कि में अपनी छत्री अमुक दुकानपर भूलपाया हूँ, चुनांचे वह तुरन्त ही वहां गया और अपनी पत्री ले 'माया मोर माकर कहने लगा- 'तुम्हारी इस छत्रीका में बहुत पामारी है,