________________ 474 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश हतः रत्नकरण्डकारने तत्त्वार्थसूत्रपर लिखी गई तीनों टीकामोंका उल्लेख किया है / सर्वार्थसिद्धि कहीं शब्दशः और कहीं अर्थत: प्रकलङ्ककृत राजवातिक एवं विद्यानन्दिकृत श्लोकवार्तिकमें प्रायः पूरी ही प्रथित है / अत: जिसने अकल कृत और विद्यानन्दिकी रचनामोंको हृदयङ्गम कर लिया उसे सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राजाती है / रत्नकरण्डके इस उल्लेखपरसे निर्विवादत: सिद्ध होजाता है कि यह रचना न केवल पूज्यपादसे पश्चात्कालीन है, किन्तु प्रकलङ्क और विद्यानन्दिसे भी पीछेकी है / " ऐसी हालतमें रत्नकरण्डकारका प्राप्तमीमांमाके कर्तामे एकत्व सिद्ध नहीं होता।" यहाँ प्रो० साहब-द्वारा कल्पित इस इलेषार्थ के मुघटित होने में दो प्रबल बाधाएं हैं-एक तो यह कि जब 'वीतकलंक' से अकलंकका प्रौर विद्यासे विद्यानन्दका अर्थ लेलिया गया तब दृष्टि' और 'क्रिया' दो ही रत्न शेष रह जाते हैं और वे भी अपने निर्मल-निर्दोष प्रयवा सम्यक जैसे मौलिक विशेषगणमे गून्य / ऐसी हालत में श्लेषार्थ के साथ जो "निर्मल ज्ञान" अर्थ भी जोड़ा गया है वह नहीं बन सकेगा और उसके न जोड़नेपर वह श्लेघार्य * ग्रन्थ-सन्दर्भके साथ अमङ्गत हो जायगा; क्योंकि ग्रन्थभरमें तृतीय पद्यसे प्रारम्भ करके इम पद्य के पूर्व तक सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप तीन रन्नोंका ही धर्मरूपमे वर्णन है, जिसका उपसंहार करते हुए ही इस उपान्त्य पद्यमें उनको अपनानेवालेके लिये मर्व अर्थकी सिद्धिरूप फलको व्यवस्था की गई है, इसकी तरफ किसीका भी ध्यान नहीं गया / दूसरी बाधा यह है कि 'त्रिषु विष्टपेषु' पदोंका प्रथं जो "तीनों स्थलोंपर किया गया है वह मङ्गन नहीं बैठता; क्योंकि प्रकलंकदेवका राजवार्तिक और विद्यानन्दका इलोकवातिक ग्रन्थ ये दो ही स्थल ऐसे है जोपर पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि ( तत्स्वार्थवृत्ति) शब्दशः तथा प्रर्थतः पाई जाती है तीसरे स्थलकी बात मूलके किमी भी शब्दपरसे उसका प्राशय व्यक्त न करने के कारण नहीं बनती। यह बाधा जब प्रो० साहबके सामने उपस्थित की गई मोर पूछा गया कि 'त्रिषु विष्टपेषु' का श्लेषार्थ जो 'तीनों स्थलोंपर' किया गया ॐ अनेकान्त वर्ष 7 किरण 5.6 पृ० 53 भनेकान्त वर्ष 8 किरण 3 10 132