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________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयमें मेरा विचार और निर्णय 473 के सात पद्योंको प्रभावन्द्रीय टीकासे पहलेकी ऐसी प्राचीन प्रतियोंके न मिलनेके कारण प्रक्षिप्त नहीं कह सकते जिनमें वे पद्य सम्मिलित न हों। इस तरह प्रो०साहबकी तीसरी आपत्तिमें कुछ भी सार मालूम नहीं होता। युक्तिके पूर्णतः सिद्ध न होने के कारण वह रत्नकरण्ड और प्राप्तमीमांसाके एककर्तृत्वमे बाधक नहीं हो सकती, और इसलिये उसे भी समुचित नहीं कहा जा सकता। (4) अब रही चौथी आपत्ति की बात, जिसे प्रो० साहबने रत्नकरण्डके निम्न उपान्त्य पद्यपरसे कल्पित करके रक्खा है येन स्वयं वीतकलङ्क-विद्या-दृष्टि-क्रिया-रत्नकरण्डभावं / नीतस्तमायाति पतीच्छयेव सर्वार्थसिद्धिरित्रषु विष्टपेषु / / ___ इस पद्य में ग्रन्थका उपसंहार करते हुए यह बतलाया गया है कि जिस ( भव्यजीव ) ने प्रात्माको निर्दोष-विद्या, निदोप-दृष्टि और निर्दोष-क्रियारूप. रत्नोंके पिटारेके भावमें परिणत किया है-अपने प्रात्मामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान और सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रय-धर्मका प्राविर्भाव किया है-उसे तीनों लोकोमे सर्वार्थसिद्धि-धर्म-अर्थ काम-मोक्षरूप सभी प्रयोजनोंकी सिद्धिस्वयंवरा कन्याकी तरह स्वयं प्राप्त हो जाती है, अर्थात् उक्त सर्वार्थ सिद्धि उसे स्वेच्छासे अपना पति बनाती है, जिससे वह चारों पुरुषार्थोका स्वामी होता है और उसका कोई भी प्रयोजन सिद्ध हुए बिना नहीं रहता।' इस अर्थ को स्वीकार करते हुए प्रो० साहबका जो कुछ विशेष कहना है वह यह है "यहाँ टीकाकार प्रभाचन्द्रके द्वारा बतलाये गये वाच्यार्थके अतिरिक्त श्लेरूपसे यह अर्थ भी मुझे स्पष्ट दिखाई देता है कि "जिसने अपनेको भकलङ्क और विद्यानन्दके द्वारा प्रतिपादित निर्मल ज्ञान, दर्शन और चारित्ररूपी रत्नोंकी पिटारी बना लिया है उसे तीनों स्थलोंपर सर्व प्रोंकी सिदिरूप सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्रास हो जाती है, जैसे इच्छामात्रसे पतिको अपनी पत्नी।" यहाँ नि:सन्दे___® भनेकान्त वर्ष 6, किरण 110 12 पर प्रकाशित प्रोफ़ेसर साहबका उत्तर पत्र /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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