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________________ 472 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश ने अपने "विलुप्त अध्याय मे यह लिखा था कि "दिगम्बरजैन साहित्यमें जो भाचार्य स्वामीकी उपाधिसे विशेषत: विभूषित किये गये हैं वे प्राप्तमीमांसाके कर्ता समन्तभद्र ही है।" मोर भागे श्रवणबेल्गोलके एक शिलालेखमे भद्रबाह द्वितीयके साथ 'स्वामी' पद जुड़ा हुआ देखकर यह बतलाते हुए कि “भद्रबाहुको उपाधि स्वामी थी जो कि साहित्य में प्रायः एकान्ततः समन्तभद्रके लिये ही प्रयुक्त हुई है" समन्तभद्र और भद्रबाहु द्वितीयको "एक ही व्यक्ति" प्रतिपादन किया था। इस परसे कोई भी यह फलित कर सकता है कि जिन समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' पद लगा हुआ हो उन्हें प्रो० साहबके मतानुसार प्राप्तमीमांसाका कर्ता समझना चाहिये / तदनुसार ही प्रो०साहबके सामने रत्नकरण्डकी टीकाका उक्त प्रमाण यह प्रदर्शित करने के लिये रक्खा गया कि जब प्रभाचन्द्राचार्य भी रत्नकरण्डको स्वामी समन्तभद्रकृत लिख रहे है और प्रो० साहब 'स्वामी' पदका असाधारण सम्बन्ध प्राप्तमीमांसाकारके साथ जोड़ रहे है तब वह उसे प्राप्तमीमांसाकारसे भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्र की कृति कैसे बतलाते हैं ? इसके उत्तर में प्रो०माहबने लिखा है कि 'प्रभा चन्द्रका उल्लेख केवल इतना ही तो है कि रत्नकरण्डके का स्वामी समन्तभद्र है उन्होने यह तो प्रकट किया ही नहीं कि ये ही रत्नकर ण्डके कर्ता प्राप्तमीमांसाके भी रचयिता है / " परन्तु साथमें लगा हुप्रा 'स्वामी' पद तो उन्हीके मन्तव्यानुसार उमे प्रकट कर रहा है यह देखकर उन्होंने यह भी कह दिया है कि 'रलकरण्डके कर्ता समन्तभद्र के साथ 'स्वामी' पद बादको जुड़ गया है-चाहे उसका कारण भ्रान्ति हो या जान-बूझकर ऐसा किया गया हो।' परन्तु अपने प्रयोजनके लिये इस कह देने मात्रसे कोई कम नही चल सकता जबतक कि उसका कोई प्राचीन प्राधार व्यक्त न किया जाय-कमसे कम प्रभाचन्दाचार्यसे पहलेकी लिखी हुई रत्नकरण्डकी कोई ऐसी प्राचीन मूलप्रति पेश होनी चाहिये थी जिसमें समन्तभद्रके साथ स्वामी पद लगा हमा न हो। लेकिन प्रो० साहबने पहले की ऐसी कोई भी प्रति पेश नहीं की तब वे वादको भ्रान्ति मादिके वश स्वामी पदके जुड़ने की बात कैसे कह सकते है ? नहीं कह सकते, उसी तरह जिस तरह कि मेरे द्वारा सन्दिग्ध करार दिये हुए रत्नकरण्ड अनेकान्त वर्ष 8, किरण 3, पृ० 126 /
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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