________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व विषयमें मेरा विचार और निर्णय 471 की दृष्टिसे 'रत्नकरण्ड' का कर्ता नहीं हो सकता है। और इस लिये जब तक जैनसाहित्यपरसे किसी ऐसे दूसरे समन्तभद्रका पता न बतलाया जाय जो इस रत्नकरण्डका कर्ता हो सके तब तक 'रत्नकरण्ड' के कर्ताके लिये 'योगीन्द्र' विशेषरणके प्रयोग-मात्रसे उसे कोरी कल्पनाके प्राधारपर स्वामी ममन्तभद्रसे भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्रकी कृति नहीं कहा जा सकता। मी वस्तुस्थितिमें वादिराजके उक्त दोनों पद्योंको प्रथम पद्यके साथ स्वामिसमन्तभद्र-विषयक समझने और बतलाने में कोई भी बाधा प्रतीत नहीं होती * / प्रत्युत इसके, वादिराजके प्राय: समकालीन विद्वान् प्राचार्य प्रभाचन्द्रका अपनी टीकामें 'रत्नकरण्ड' उपासकाध्ययनको साफ़ तौरपर स्वामी समन्तभद्रकी कृति घोषित करना उसे पुष्ट करता है / उन्होंने अपनी टीकाके केवल संधि-वाक्योंमें ही 'समन्तभद्रस्वामि-विरचित' जैसे विशेषणों-द्वारा वैसी घोषणा नहीं की बम्कि टीकाकी प्रादिमें निम्न प्रस्तावना-वाक्य-द्वारा भी उसकी स्पष्ट सूचना की है "श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तु कामो निविघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्यादिकं फलमभिलपनिटदेवताविशेषं नमस्कुबन्नाह / " हाँ, यहाँपर एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि प्रो.साहब +देखो,माणिकचन्द-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचार,प्रस्तावना पृ० 5 से है। * सन् 1912 में तंजोरसे प्रकाशित होनेवाले वादिराजके 'यशोधर-चरित' की प्रस्तावनामें, टी० ए० गोपीनाथराव एम० ए० ने भी इन तीनों पद्योंको इसी क्रमके साथ समन्तभद्रविषयक सूचित किया है। इसके सिवाय, प्रस्तुत चरितपर शुभचन्द्रकृत जो 'पंजिका' है उसे देखकर पं० नाथूरायजी प्रेमीने बादको यह मूचित किया है कि उसमें भी ये तीनों पद्य समन्तभद्रविषयक माने गये हैं। और तीसरे पद्यमें प्रयुक्त हुए 'योगीन्द्रः' पदका अर्थ 'समन्तभद्र' ही लिखा है। इससे बाघाकी जगह साधकप्रमाणकी बात और भी सामने मा जाती है।