________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 475 है वे तीन स्थल कौनसे हैं जहाँपर सर्व अर्थकी सिद्धिरूप 'सर्वार्थसिद्धि' स्वयं प्राप्त हो जाती है ? तब प्रोफेसर साहब उत्तर देते हुए लिखते हैं "मेरा खयाल था कि वहाँ तो किसी नई कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं क्योंकि वहाँ उन्ही तीन स्थलोंकी सङ्गति सुस्पष्ट है जो टीकाकारने बतला दिये हैं अर्थात् दर्शन, ज्ञान और चरित्र, क्योंकि वे तत्त्वार्थसूत्रके विषय होनेमे सर्वार्थसिद्धि में तथा प्रकलङ्कदेव और विद्यानन्दिकी टोकात्रों में विवेचिन हैं और उनका ही प्ररूपण रत्नकरण्डकारने किया है " यह उत्तर कुछ भी मगत मालूम नही होता; क्योंकि टीकाकार प्रभाचन्द्रने "त्रिषु विष्टपेषु' का स्पष्ट अर्थ 'त्रिभुवनेषु' पदके द्वारा 'तीनों लोकमें' दिया है। उसके स्वीकारकी घोषणा करते हुए और यह आश्वासन देते हुए भी कि उस विषयमें टीकाकारसे भिन्न “किमी नई कल्पनाकी आवश्यकता नहीं' टीकाकारका अर्थ न देकर 'अर्थात् ' गब्दके साथ उसके अर्थकी निजी नई कल्पनाको लिये हुए अभिव्यक्ति करना और इस तरह 'त्रिभुवनेषु' पदका अर्थ "दर्शन, ज्ञान और चारित्र'' बतलाना अर्थका अनर्थ करना अथवा खीचतानकी पराकाष्ठा है / इमसे उत्तरकी संगति और भी बिगड़ जाती है, क्योंकि तब यह कहना नहीं बनता कि सर्वार्थ सिद्धि प्रादि टीकाग्रोमे दर्शन ज्ञान और चारित्र विवेचित हैंप्रतिपादिन हैं; बल्कि यह कहना होगा कि दर्शन, ज्ञान और चारित्रमें सर्वार्थसिद्धि प्रादि टीकाएँ विवेचित है-प्रतिपादित है, जो कि एक बिल्कुल ही उल्टी बात होगी / और इस तरह आधार-प्राधेय सम्बन्धादिकी सारी स्थिति बिगड़ जायगी; और तब इलेषरूपमें यह भी फलित नही किया जा सकेगा कि अकलङ्क और विद्यानन्दकी टीकाएं ऐसे कोई स्थल या स्थानविशेष है जहाँपर पूज्यपादको टीका सर्वार्थसिद्धि स्वयं प्राप्त हो जाती है। इन दोनों बाधामोंके सिवाय श्लेषकी यह कल्पना अप्रासंगिक भी जान पड़ती है। क्योंकि रत्नकरण्डके साथ उसका कोई मेन नहीं मिलता, रत्नकरण्ड तत्त्वार्थसूत्रकी कोई टीका भी नहीं जिससे किसी तरह खींचतान कर उसके साथ कुछ मेल बिउलाया जाता, वह तो मागमकी ख्यातिको प्राप्त एक स्वतन्त्र भनेकान्त वर्ष 8, किरण 3 पृ० 130