________________ 476 जैनसाहित्य और इतिहासपर विषद प्रकाश मौलिक ग्रन्थ है, जिसे पूज्यपादादिकी उक्त टीकापों का कोई प्राधार प्राप्त नहीं है और न हो सकता है। और इमलिये उसके साथ उक्त श्लेषका पायोजन एक प्रकारका असम्बद्ध प्रलाप ठहरता है अथवा यों कहिपे कि 'विवाह तो किसीका और गीत किसीके' इस उक्तिको चरितार्थ करता है / यदि विना सम्बन्धविशेषके केवल शब्दछलको लेकर ही श्लेषकी कल्पना अपने किसी प्रयोजनके वश की जाय और उसे उचित समझा जाय तब बहुत कुछ अनयोंके मटित होनेको सम्भावना है। उदाहरणके लिये स्वामिसमन्तभद्र-प्रणीत 'जिनशतक' के उपान्त्य पद्य (नं० 115) में भी प्रतिकृति: सर्वार्थसिद्धि : परा' इस वाक्यके अन्तर्गत 'सर्वार्थ सिद्धि' पदका प्रयोग पाया जाता है और 61 वें पद्यमें तो 'प्राप्य सर्वार्थसिद्धि गा' इस वाक्य के साथ उसका रूप और स्पष्ट होजाता है उसके साथवाले गां' पदका अर्थ वाणी लगा लेनेसे वह वचनात्मिका 'सर्वार्थमिद्धि' होजाती है / इस 'सर्वार्थसिद्धि' का वाच्यार्थ यदि उक्त श्लेषार्थ की तरह पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' लगाया जायगा तो स्वामी समन्तभद्रको भी पूज्यपादके बादका विद्वान् कहना होगा और तब पूज्यपादके 'चतुष्टयं ममन्तभद्रस्य' इस व्याकरणसूत्र में उल्लिखित समन्तभद्र चिन्ताके विषय बन जायेंगे तथा और भी शिलालेखो, प्रशस्तियों तथा पट्रावलियों प्रादिकी कितनी ही गड़बड़ उपस्थित हो जायगी। अतः सम्बन्धविषयको निर्धारित किये विना केवल शब्दोके समानार्थको लेकर ही श्लेषार्थ की कल्पना व्यर्थ है। इस तरह जब श्लेषाथ ही मुघटित न होकर बाधित ठहरता है तब उसके प्राधारपर यह कहना कि ''रत्नकरण्डके इस उल्लखपरसे निर्विवादन: सिद्ध होजाता है कि वह रचना न केवल पूज्यपादके पश्चात्कालीन है, किन्तु प्रकलंक और विद्यानन्दिसे भी पीछे की है" कोरी कल्पनाके सिवाय पोर कुछ भी नहीं है। उसे किसी तरह भी युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता-रत्नकरण्डके 'अ.प्लोजमनुल्लं' पद्यका न्यायावतारमें पाया जाना भी इसमें बाधक है। वह केवल उत्तरके लिये किया गया प्रयासमात्र है और इसीसे उसको प्रस्तुत करते हुए प्रो० साहबको अपने पूर्वकथनके विरोधका भी कुछ खयाल नहीं रहा। जसा कि में इससे पहले द्वितीयादि भापत्तियोंके विचारकी भूमिकामें प्रकट कर चुका हूँ।