________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 477 यहांपर एक बात और भी प्रकट कर देनेकी है और वह यह कि प्रो० साहब श्लेषकी कल्पनाके बिना उक्त पद्यकी रचनाको अटपटी और अस्वाभविक समझते हैं। परन्तु पद्यका जो अर्थ ऊपर दिया गया है और जो प्राचार्य प्रभाचन्द्रसम्मत है उसमे पद्यकी रचनामें कहीं भी कुछ अटपटापन या अस्वाभाविकताका दर्शन नहीं होता है। वह दिना किमी इन्नेषकल्पनाके ग्रन्थके पूर्वकथनके साथ भले प्रकार सम्बद्ध होता हुप्रा ठीक उसके उपसंहाररूपमें स्थित है। उसमें प्रयुक्त हुए विद्या, दृष्टि जैसे शब्द पहले भी ग्रन्यमें ज्ञान-दर्शन जैसे अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, उनके प्रथं में प्रो० माहबको कोई विवाद भी नहीं है / हाँ, 'विद्या' से श्लेषरूपमें 'विद्यानन्द' अर्थ लेना यह उनकी निजी कल्पना है, जिसके समर्थनमें कोई प्रमाण उपस्थित नहीं किया गया केवल नामका एक देश कहकर उसे मान्य कर निया है / तब प्रो० साहब की दृष्टि में पद्यकी रचनाका अटपटापन या अस्वाभाविकपन एकमात्र 'वीतकलंक' शब्दके साथ केन्द्रित जान पड़ता है, उसे ही सीधे वाच्य-वाचक-मम्बन्धका बोधक न समझकर आपने उदाहरण प्रस्तुत किया है / परन्तु मम्यक् शब्दके लिये अथवा उसके स्थानपर 'वीतकलंक' शब्दका प्रयोग छन्द तथा स्पष्टार्थ की दृष्टि से कुछ भी अटपटा, असंगत या अस्वाभाविक नही है; क्योंकि 'कलंक' का सुप्रसिद्ध अर्थ 'दोष' है। मोर उसके साथमे 'वीत विशेषरण विगत, मुक्त, त्यक्त, विनष्ट अथवा 29 जहाँतक मुझे मालूम है संस्कृत साहित्य में इलेपरूपसे नामका एकदेश ग्रहण करते हुए पुरुपके लिये उमका पुलिंग अंश और स्त्रीके लिये स्त्रीलिंग अंश ग्रहण किया जाता है; जैसे 'सत्यभामा' नामकी स्त्रीके लिये 'भामा' अंशका प्रयोग होता है न कि सत्य' अंशका / इसी तरह 'विद्यानन्द' नामका 'विद्या' अंश, जोकि स्त्रीलिंग है, पुरुषके लिये व्यवहृत नहीं होता / चुनाँचे प्रो० साहबने श्लेषके उदाहरणरूपमें जो 'देवं स्वामिनममलं विद्यानन्दं प्रणम्य निजभक्तघा' नामका पद्य उद्धृत किया है उसमें विद्यानन्दका 'विद्या' नामसे उल्लेख न करके पूरा ही नाम दिया है। विद्यानन्दका 'विद्या' नामसे उल्लेखका दूसरा कोई भी उदाहरण देखनेमें नहीं पाता। 'कलंकोड कालायसमले दोषापवादयोः / विश्वकोश। दोषके अर्थ में