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श्वे० तत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी " जाँच
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यहाँपर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि तत्त्वार्थसूत्रपर श्वेताम्बरोंका एक पुराना टिप्पण है, जिसका परिचय अनेकान्तके वीरशासनाङ्क (वर्ष ३ कि० १ पृ० १२१ - १२८) में प्रकाशित हो चुका है। इस टिप्पणके कर्ता रत्नसिंह सूरि बहुत ही कट्टर साम्प्रदायिक थे और उनके सामने भाष्य ही नही किन्तु सिद्धसेनकी भाष्यानुसारिणी टीका भी थी, जिन दोनोंका टिप्पर में उपयोग किया गया है, परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी उन्होंने भाष्यको 'स्वोपज्ञ' नहीं बतलाया । टिप्परके अन्त में 'दुर्वादापहार' रूपमे जो सात पद्य दिये हैं उनमें से प्रथम पद्य और उसके टिप्पण में, साम्प्रदायिक कट्टरताका कुछ प्रदर्शन करते हुए उन्होंने भाष्यकारका जिन शब्दोंमें स्मरण किया है वे निम्न प्रकार हैं:
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"प्रागेवैतद दक्षिण-भषण - गरणादास्यमानमिति मत्वा ।
त्रातं समूल-चूलं स भाष्यकारश्चिरं जीयात् ॥ १ ॥
टिप्पण - दक्षिणे सरलोदाराविति हेमः" अदक्षिणा असरलाः स्ववचनस्यैव पक्षपातमलिना इति यावत्त एव भरणाः कुकुरास्तेषां गणैरादास्यमानं महिष्यमानं स्वायत्तीकरिष्यमानमिति यावत्तथाभूतमिवैततत्वार्थशास्त्रं प्रागेवं पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येनेति शेषः । सहमूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं त्रातं रक्षितं स कश्चिद् भाष्यकारो भाष्यकर्ता चिरं दीर्घ जीयाञ्जयं गम्यादित्याशीर्वचोऽस्माकं लेखकानां निर्मलग्रन्थरक्षकाय प्राग्वचनं - चौरिकायामशक्यायेति ।"
इन शब्दोंका भावार्थ यह है कि - 'जिसने इस तत्त्वार्थशास्त्र को अपने ही वचनके पक्षपातसे मलिन अनुदार कुत्तोंके समूहों द्वारा ग्रहीप्यमान- जैसा जानकर - -यह देखकर कि ऐसी कुत्ता - प्रकृतिके विद्वान लोग इसे अपना अथवा अपने सम्प्रदायका बनाने वाले हैं - पहले ही इस शास्त्रकी मूल-चूल सहित रक्षा की है-इसे ज्योंका त्यों श्वेताम्बरसम्प्रदायके उमास्वातिकी कृतिरूपमें ही कायम रक्खा है-वह (प्रज्ञातनामा ) भाष्यकार चिरंजीव होवे - चिरकाल तक ऐसा हम टिप्पणकार जैसे लेखकोंका उस निर्मलग्रन्थके वचनोंकी चोरी में प्रसमर्थके प्रति प्राशीर्वाद है ।'
जयको प्राप्त होवे - रक्षक तथा प्राचीन