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________________ १३२ जैनमाहित्य और इनिहामपर विशद प्रकाश ___ यहाँ भाष्यकारका नाम न देकर उसके लिये 'सकश्चित्' (वह कोई ) शब्दोंका प्रयोग किया है, जब कि मूल सूत्रकारका माम, 'उमाम्वाति' कई स्थानोंपर स्पष्ट रूपसे दिया है। इससे साफ ध्वनित होता है कि टिप्पणकारको भाष्यकारका नाम मालूम नही था और वह उसे मूल सूत्रकारसे भिन्न समझता था, भाष्यकारका 'निमलग्रन्थरक्षकाय' विशेषणके साथ 'प्राग्वचन-चौरिकायामशक्याय' विशेषण भी इसी बातको सूचित करता है। इसके 'प्राग्वचन' का वाच्य तत्त्वार्थसूत्र जान पड़ता है-जिसे प्रथम विशेषरणमें 'निर्मलग्रन्थ' कहा गया है, भाष्यकारने उसे चुराकर अपना नही बनाया-वह अपनी मनःपरिणतिके कारण ऐपा करनेके लिये असमर्थ था~यही आशय यहाँ व्यक्त किया गया है। अन्यथा, उमास्पातिके लिये इस विशेषण की कोई जरूरत नही थी-- यह उनके लिये किसी तरह भी ठीक नहीं बैठता। साथ ही, 'अपने ही बचनके पक्षपातमे मलिन अनुदार कुतों के समूहों द्वारा ग्रहीष्यमान-जैसा जानकर' ऐसा जो कहा गया है उपमे यह भी ध्वनित होता है कि भाष्यकी रचना उम समय हुई है जब कि तत्वार्थ पूत्रपर 'सर्वार्थमिद्धि' प्रादि कुछ प्राचीन दिगम्बर टीकाएँ बन चुकी थीं और उनके द्वारा दिगम्बर समाजमें तत्त्वार्थसूत्रका अच्छा प्रचार प्रारंभ हो गया था । इस प्रचारको देखकर ही किसी श्वेताम्बर विद्वानको भाष्यके रचनेकी प्रेरणा मिली है और उसके द्वारा तत्त्वार्थसूत्रको श्वेताम्बर बनाने की चेष्टा की गई है, ऐमा प्रतीत होता है। ऐसी हालतमे भाष्यको स्वयं मूल सूत्रकार उमास्वातिकी कृति बतलाना और भी असंगत जान पड़ता है। सूत्र और भाष्यका आगमसे विरोध ___ मत्र और भाष्य दोनोंका निर्माण यदि श्वेताम्बर आगमोंके आधारपर ही हुआ हो, जैसा कि दावा है, तो श्वे० प्रागमोंके साथ उनमेंसे किमीका जरा भी मतभेद, ममंगतपन अथवा विरोध न होना चाहिये । यदि इनमेंसे किसीमें भी कहींपर ऐसा मतभेद, असंगतपन अथवा विरोध पाया जाता है तो कहना होगा 'चल' का अभिप्राय प्रादि अन्तकी कारिकामोंसे जान पड़ता है, जिन्हें साथमें लेकर और मूलसूत्रका अंग मानकर ही टिप्पण लिखा गया है। :
SR No.010050
Book TitleJain Sahitya aur Itihas par Vishad Prakash 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Shasan Sangh Calcutta
Publication Year1956
Total Pages280
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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