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१३० जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश - "एते सारस्वतादयोऽष्टविधा देवा ब्रह्मलोकस्य पूर्वोत्तरादिषु दिक्षु प्रदक्षिणं भवन्ति यथासंख्यम् ।" - इससे सूत्र और भाष्यका भेद स्पष्ट है। सिद्धसेनगणी और पं० सुखलालजीने भी इस भेदको स्वीकार किया है, जैसा कि उनके निम्न वाक्योंसे प्रकट है"नन्वेवमेते नवभेदा भवन्ति, भाष्यकृता चाष्ट विधा इति
मुद्रिताः ।" "इन दो सूत्रोंके मूलभाष्यमें लोकान्तिक देवोंके आठ ही भेद बतलाये हैं,
नव नहीं।" इस विषयमें सिद्धसेनगणी तो यह कहकर छुट्टी पागये है कि लोकान्तमें रहने वालोंके ये पाठ भेद जो भाष्यकार सूरिने अंगीकार किये है वे रिष्टविमानके प्रस्तारमें रहनेवालोंकी अपेक्षा नवभेद्रूप हो जाते हैं, आगममें भी नव भेद कहे है, इसमे कोई दोष नही* परन्तु मूल सूत्रमें जब स्वयं सूत्रकारने नव भेदोंका उल्लेख किया है तब अपने ही भाष्यमें उन्होंने नव भेदोंका उल्लेख न करके आठ भेदोंका ही उल्लेख क्यों किया है, इसकी वे कोई माकूल (युक्तियुक्त) वजह नहीं बतला सके। इसीसे शायद प० सुखलालमीको उस प्रकारमे कहकर छुट्टी पा लेना उचित नही ऊंचा, और इस लिये उन्होंने भाष्यको स्वोपजतामे बाधा न पड़ने देनेके खयालसे यह कह दिया है कि-"यहां मूल सत्र में 'मरुतो' पाठ पीछेसे प्रक्षिप्त हुआ है ।' परन्तु इसके लिये वे कोई प्रमाण उपस्थित नहीं कर मके । जब प्राचीनसे प्राचीन श्वेताम्बरीय टीकामे 'मानो' पाठ स्वीकृत किया गया है तब उसे यों ही दिगम्बर पाठकी बातको लेकर प्रक्षिप्त नहीं कहा जा सकता।
सूत्र तथा भाष्यके इन चार नमूनों और उनके उक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि सूत्र और भाष्य दोनों एक ही प्राचार्यकी कृति नहीं है, और इमलिये ज्वे० भाष्यको 'स्वोपज' नहीं कहा जा सकता।
'उच्यते-लोकान्तवर्तिनः एतेष्टमेदाः सूरिणोपात्ताः, रिटविमानप्रस्तारकतिभिर्नवधा भवन्तीत्यदोषः । प्रागमे तु नवधवाधीता इति ।"