________________ 442 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश मारणशक्तिके प्रभावहीन हो जाने पर विषद्रव्यके परमाणपोंका ही प्रभाव प्रतिपादन करना / प्रत्युत इसके, पातिया कोका प्रभाव होनेपर भी यदि वेदनीकर्मके उदयादिवश केवलीमें क्षुधादिकी वेदनामोंको और उनके निरसनार्थ भोजनादिके ग्रहणकी प्रवृत्तियोंको माना जाता है तो उसमे कितनी ही दुनिवार सैदान्तिक कठिनाइयों एवं बाधाएं उपस्थित होती है, जिनमें से दो तीन नमूने के तौर पर इस प्रकार है (क) भसातावेदनीयक उदय वश केवलीको यदिभूख-प्यासकी वेदनाएँ सताती है, जोकि संक्लेश परिणामकी प्रविनाभाविनी है , नो केवलीमें अनन्तमुखका होना बाधित ठहरता है / मोर उस दु:खको न सह सकनेके कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता है तो अनन्तवीयं भी बाधित हो जाता है-उसका कोई मूल्य नहीं रहता-प्रथवा बीयंन्तरायकर्मका प्रभाव उसके विम्ब पड़ता है। (ख) यदि क्षुषादि वेदनामोंके उदय-श केवलीमें भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होती है तो केवलीके मोहकमका प्रभाव हुपा नहीं कहा जा सकता; क्योंकि इच्छा मोहका परिणाम है पौर मोहके सदभावमें केवलित्व भी नही बनता / दोनो परस्पर विरुद्ध है। (ग) भोजनादिकी इच्छा उत्पन्न होनेपर केवलीमें नित्य-ज्ञानोपयोग नहीं बनता, और नित्यज्ञानोपयोगके न बन सकनेपर उमकाजान छुपस्यों (पमवंशो) के समान शायोपशमिक ठहरता है-मायिक नहीं। पोर तब भानावरण तथा उसके साथी दर्शनावरण नामके घानियाकोका प्रभाव भी नहीं बनता। (घ) वेदनीयकमंके उदयजन्य जो सुख-दुःना होता है वह सब इन्द्रियजन्य होता है और केवलोके इन्द्रियशानकी प्रवृत्ति रहनी नहीं / यदि केवलीमें क्षुधातृषादिकी वेदनाएं मानी जाएंगी तो इन्द्रियज्ञानकी प्रवृत्ति होकर केवलज्ञानका विरोष उपस्थित होगा; क्योकि केवलज्ञान और मतिजानादि युगपत नहीं होते / (क) क्षुधादिकी पीड़ाके वश भोजनादिको प्रवृत्ति ययाख्यातचारित्रकी विरोधनी है। भोजन के समय मुनिको प्रमत्त (छठा) पुरणस्थान होता है और केवली भगवान् 132 गुणस्थानवर्ती होते है जिससे फिर मठेमें लौटना नहीं (r) संकिलेसाविणामावरणीए भुसाए बममाणस (धवला)