________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 443 बनता। इससे यथास्यातचारित्रको प्राप्त केवली भगवान्के भोजनका होना उनकी चर्या और पदस्थके विरुद्ध पड़ता है। इस तरह क्षुधादिकी वेदनाएँ और उनकी प्रतिक्रिया मानने पर केवलीमें घातियाकोका प्रभाव ही घटित नहीं हो सकेगा, जो कि एक बहुत बड़ी संद्धान्तिक बाषा होगी। इसीसे क्षुषादिके प्रभावको 'पातिकर्मक्षयज:' तथा 'अनन्तज्ञानादिसम्बन्धजन्य' बतलाया गया है, जिसके मानने पर कोई भी सैद्धान्तिक गधा नहीं रहती। और इसलिये टीकामोंपरसे क्षुधादिका उन दोषों. के रूपमें निर्दिष्ट तथा फलित होना सिट है जिनका केवली भगवान्में प्रभाव होता है। ऐसी स्थितिमें रनकरण्डके उक्त छठे पचको क्षुत्पिपासादि दोपोको दृष्टिमे भी प्राप्तमीमांसाके माय असंगत अथवा विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। अन्थके सन्दर्भकी जाँच अब देखना यह है कि क्या ग्रन्थका सन्दर्भ स्वयं इसके कुछ विरुद्ध पड़ता। है ? जहाँ तक मैंने अन्यके सन्दर्भ की जांच की है और उसके पूर्वापर-कथनसम्बन्धको मिलाया है मुझे उसमें कहीं भी ऐमी कोई बात नहीं मिली जिसके प्राधारपर के गली में क्षुतिसपासादिक समावको स्वामी समन्तभद्र की मान्यता कहा जा सके / प्रत्युत इसके, अन्यकी प्रारम्भिक दो कारिकामोंमें जिन अतिशयोंका देवागम-नभायान-चामरादि विभूतियोंके तथा अन्तर्वाहा-विग्रहादि महोदयोंके रूपमें उल्लेख एव सकेत किया गया है और जिनमें धातिक्षय-जन्य होनेसे क्षुत्पिपासादिके प्रभावका भी समावेश है उनके विषय में एक भी शब्द अन्यमें ऐसा नहीं पाया जाता जिमसे पन्थकारको दृष्टिमें उन प्रातिशयोंका केवली भगवान में होना प्रमान्य समझा जाय। अन्धकारमहोदयने 'मायाविष्वपि दृश्यन्ते तथा 'दिव्यः सत्यः दिवौकस्स्वप्यन्ति' इन वाक्यों में प्रयुक्त हुए 'पपि' शब्दके द्वारा इस बातको स्पष्ट घोषित कर दिया है कि वे प्रहकेवलीमें उन विभूतियों सपा विग्रहादिमहोदय-रूप अतिशयोंका सद्भाव मानते हैं परन्तु इतनेसे ही वे उन्हें महान् (पूज्य) नहीं समझते; क्योंकि ये अतिशय अन्यत्र मायावियों (इन्द्रजालियों) तथा रागादि-युक्त देवोंमें भी पाये जाते है