________________ 444 जनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश भले ही उनमें वे वास्तविक मथवा उस सत्यरूपमें न हों जिसमें कि वे क्षीणकषाय महत्केवली में पाये जाते है। और इसलिये उनकी मान्यताका मापार केवल मागमाश्रित श्रद्धा ही नहीं है बल्कि एक दूमरा प्रबल माघार वह गुरपज्ञता अथवा परीक्षाकी कसौटी है जिसे लेकर उन्होंने कितने ही प्राप्तोंकी जांच की है और फिर उस परीक्षाके फलस्वरूप वे वीर-जिनेन्द्र के प्रति यह कहने में समर्थ हुए है कि 'वह निदर्षो प्राप्त पाप ही हैं। (सत्वमेवासि निर्दोषः)। साथ ही 'युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्' इस पदके द्वारा उस कसौटीको भो व्यक्त कर दिया है जिसके द्वारा उन्होंने मातोंके वीतरागता और सर्वजता जैसे प्रसाधारण गुणोंकी परीक्षा की है जिनके कारण उनके वचन युक्ति पोर शास्त्रसे अविरोधरूप यथार्थ होते है, और मागे संक्षेपमें परीक्षाको तफ़सील भी दे दी है। इस परीक्षामें जिनके प्रागम-वचन युक्ति-शास्त्रमे प्रविरोधला नहीं पाये गये उन सर्वथा एकान्तवादियोंको प्राप्त न मान कर 'प्राप्ताभिमानदग्ध' घोषित किया है। इस तरह निर्दोष-वचन-प्रणयनके साथ सर्वज्ञता पौर वीतरागता-जैसे गुणोंको प्राप्तका लक्षण प्रतिपादित किया है। परन्तु इसका यह अर्थ नही कि प्राप्तमें दूसरे गुगा नहीं होते, गुण तो बहुत होते है किन्तु वे लक्षणात्मक अथवा इन तीन गुगोंकी तरह खास तौरसे व्यावर्तात्मक नहीं, और इसलिये प्राप्तके लक्षणमें वे भले ही ग्राह्य न हों परन्तु मासके स्वरूप-चिन्तनमे उन्हे प्रमाह्म नहीं कहा जासकता। लक्षण और स्वरूपमें बड़ा अन्तर है-लक्षण-निर्देशर्म जहां कुछ प्रसाधारगग गुणोंको ही ग्रहण किया जाता है वहां स्वरूपके निर्देश अथवा चिन्तनमें प्रशेष गुरगोंके लिए गुञ्जाइश रहती है / मतः असहनीकारने 'विग्रहादिमहोदयः' का जो पर्ष गश्वनिस्वेदत्वादिः' किया है और जिसका विवेचन ऊपर किया जा चुका है उस पर टिप्पणी करते हुए प्रो० सा०ने जो यह लिखा है कि "शरीर-सम्बन्धी गुणधर्मोका प्रकट होना न-होना मासके स्वरूप-चिन्तनमें कोई महत्व नहीं रखता"• वह ठीक नहीं है। क्योंकि स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें ऐसे दूसरे कितने ही गुणोंका चिन्तम किया है जिनमें शरीर अनेकान्त वर्ष 7, किरण 7-8, पृ० 62