________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 445 सम्बन्धी पुण-धर्मोके साथ अन्य अतिशय भी आगये है * / और इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि स्वामी समन्तभद्र अतिशयोंको मानते थे और उन के स्मरण-चिन्तनको महत्व भी देते थे। __ ऐसी हालतमें प्राप्तमीमांसा अन्यके सन्दर्भको दृष्टिसे भी प्राप्तमें क्षुत्पिपासादिकके प्रभावको विरुद्ध नहीं कहा जा सकता और तब रत्नकरण्डका उक्त छठा पद भी विरुद्ध नहीं ठहरता / हो, प्रोफ़ेसर साहबने प्राप्तमीमांसाकी ६३वीं गावाको विरोधमें उपस्थित किया है, जो निम्न प्रकार है पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतो यदि / वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां युञ्ज्यानिमित्ततः / / 13 / / इस कारिकाके सम्बन्धमें प्रोट सा० का कहना है कि 'इसमेंवीतराग सबंशके दुःखकी वेदना स्वीकार की गई है जो कि कमसिद्धान्तको व्यवस्थाके अनुकूल है; जब कि रत्नकरण्डके उक्त छठे पथमें पिपासादिकका प्रभाव बतसाकर दुःख की वेदना अस्वीकार की गई है जिसकी मंगति कमसिद्धान्तकी उन * इस विषयके मूचक कुछ वाक्य इस प्रकार है (क) शरीरश्मिप्रसरः प्रभोस्ते बाल:करश्मिच्छविरालिलेप 8 / यस्यालक्ष्मीपरिवभिन्नं तमस्तमोगेरिव रश्मिभिन्नं, ननाश बाह्य बहुमानमे च 37 / समन्ततोऽङ्गभामा ते परिवेषण भूयसा, तमो बाह्यमपाकोगंमध्यात्म ध्यानतेजसा 65 / यस्य च मूर्ति: कनकमयीव स्वस्फुरदाभाकृतपरिवेषा 107 / शशिर्जाचविशुक्लोहित मुरभितरं बिरयो निजं वपुः / तव शिवमतिविस्मय यते यदपि च बाङ्मनसीय मीहितम् 113 / (ब) नमस्तलं पल्लवर्याभव त्व सहस्रपत्राम्बुजगभंचार: पादाम्बुज: पातितमारदपों भूमी प्रजाना विजयं भूत्यै 26 प्रतिहार्यविभवः परिष्कृतो देहतोऽपि बिरतो भवानभूत 73 / मानुषी प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः 75 पूज्ये मुहुः प्रामबलिदेवचकम् 76 / सर्वत्रज्योतिषोद्भूतस्नावको महिमोदयः कं न कुर्यास्प्रणम्र ते सत्वं नाप सचेतनम् 66 / तव वागमृतं श्रीमत्सर्वभाषापमापकं प्रीपयत्यमृतं यत्प्राणिनो प्यापि संसदि 17 / भूरपि रम्या प्रतिपरमासीग्मातविकोमामुग्माहासा 108 /