________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय 441 अपना कुरोत्पादन कार्य करनेमें असमर्थ होता है / मोहादिकके प्रभावमें वेदनीयकी स्थिति जीवितशरीर-जैसी न रहकर मृतशरीर-जैसी हो जाती है, उसमें प्रारण नहीं रहता अथवा जली रस्सीके समान अपना कार्य करनेकी शक्ति नहीं रहती / इस विषयके समर्थन में कितने ही शास्त्रीय प्रमाण माप्तस्वरूप, सर्वार्थसिदि, तत्त्वार्यवातिक, श्लोकवातिक, प्रादिपुराण और जयधवला-जैसे ग्रन्थोंपरसे पण्डित दरवारीलालजीके लेखोंमें उद्धृत किये गये है , जिन्हें यहाँ फिरसे उपस्थित करने की जरूरत मालूम नहीं होती। ऐसी स्थितिमें क्षुत्पिपासा-जैसे दोषोंको सर्वथा वेदनीय-जन्य नहीं कहा जा सकतावेदनीयकम उहें उत्पन्न करने में मथा स्वतन्त्र नहीं है। पौर कोई भी कार्य किसी एक ही कारण से उत्पन्न नही हुआ करता, उपादन कारगणक साथ अनेक सहकारी कारणों को भी उसके लिये जरूरत हुप्रा करती है, उन सबका संयोग नहीं मिलता तो कार्य भी नहीं हुमा करता। मोर इमलिये केवलीमें क्षुधादिका प्रभाव माननेपर कोई भी संद्धान्तिक कठिनाई उत्पन्न नहीं होती। वेदनीयका सन्य और उदय वर्तमान रहते हुए भी, मान्मामें मनन्तज्ञान-मुख वीर्यादिका सम्बन्ध रथापित होनेसे देदनीयकर्मका पुद्गल-परमारगुपुञ्ज क्षुधादि दोषोंको उत्पन्न करने में उसी तरह पसमय होता है जिस तरह कि कोई विषद्रव्य, जिमको मारण शक्तिको मन्त्र तथा प्रोपधादिके बलपर प्रक्षीण कर दिया गया हो, मारने का कार्य करनेमें प्रममर्थ होता है / निःसत्व हुए विषद्रव्यके परमाणुओंको जिस प्रकार विषद्रव्यके ही परमाणु कहा जाता है उसी प्रकार निःसत्व हुए वेदनीयकर्मके ही परमारगु कहा जाता है इस दृष्टि से ही मागममें उनके वेदनीयकर्मके परमाणुप्रोंको उदयादिककी व्यवस्था की गई है। उसमें कोई भी बाधा अथवा संद्धान्तिक कठिनाई नहीं होती-पोर इमलिये प्रोफेसर साहबका यह कहना कि 'शुधादि दोषोंका प्रभाव मामनेपर केवलीमें अषातियाकर्मोके भी नागका प्रसङ्ग माता है उमी प्रकार युक्तिसङ्गन नहीं है जिस प्रकार कि धूमके प्रभावमें अग्निका भी प्रभाव बतलाना अथवा किसी पौषध-प्रयोगमें विषद्रव्यकी * भनेकान्त वर्ष 8, किरण 4-5, 1.0 156-161 भनेकान्त वर्ष 7, किरण 7-8, पृ० 62