________________ 440 जैनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश सम्बन्धी जो 10 प्रतिशय है उन्हें देखते हुए जरा और रोगके लिये कोई स्थान नहीं रहता और भोजन तथा उपसर्गके प्रभावरूप (भुक्त्युपसर्गाभाव:) जो दो अतिशय है उनकी उपस्थितिमें क्षुधा और पिपासाके लिये कोई अवकाश नहीं मिलता / मेष 'जन्म' का अभिप्राय पुनर्जन्मसे और 'मरण' का मभिप्राय अपमृत्यु अथवा उम मरणसे है जिसके अनन्तर दूसरा भव (संसारपर्याय) धारण किया जाता है / घातिया कर्मके क्षय हो जानेपर इन दोनोंकी सम्भावनाभी नष्ट हो जाती है / इस तरह घातिया कर्मोके भय होनेपर क्षुत्पिपासादि शेष छहों दोषोंका प्रभाव होना भी प्रप्टसहस्त्री-सम्मत है, ऐसा समझना चाहिये / वमुनन्दि-वृत्तिमें तो दूसरी कारिकाका अर्थ देते हुए, “क्षुत्पिपासाजरारुजाऽपमृन्यवाद्यभावः इत्यर्थः" इस वाक्यके द्वारा शुषा-पिपासादिके प्रभावको साफ, तौर पर विग्रहादिमहोदयके अन्तर्गत किया है, विग्रहादि-महोदयको समानुपातिशय लिखा है तथा अतिशयको पूर्वावस्थाका अतिरेक बतलाया है। मोर छठी कारिकामें प्रयुक्त हुए 'निर्दोप' शब्द के अर्थ में प्रविद्या-रागादिके साथ क्षुधादिक प्रभावको भी मूचित किया है / यथा___“निर्दोष अविद्यारागादिविरहितः सुदादिविरहितो या अनन्तज्ञानादिसम्बन्धेन इत्यर्थः / " ___ इस वाक्यमें 'अनन्तज्ञानादि-मम्बन्धन' पद 'क्षुदादिविरहितः' पदके साथ अपनी खास विशेषता एवं महत्त्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि जब प्रात्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तमुख मोर मनन्सबीयंकी प्राविभूति होती है तब उसके सम्बन्धमे क्षुधादि दोषोंका स्वत; मभाव हो जाता है अर्थात उनका अभाव होजाना उमका प्रानुङ्गिक फल है-उसके लिये वेदनीयकर्मका प्रभाव-जैसे किमी दूसरे साथमके जुटने जुटाने की जरूरत नहीं रहती / और यह ठीक ही है; क्योंकि मोहनीयकमके साहवयं अपना सहायके विना वेदनीयकर्म अपना कार्य करने में उसी तरह मममर्थ होता है जिस तरह मानावरण. कर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुमा जान बीर्यान्तरायकर्मका अनुकूल क्षयोपशम साथमें न होनेसे अपना कार्य करने में समर्थ नहीं होता है; अथवा चारों धातिया कर्मोका प्रभाव होजानेपर वेदनीयकर्म अपना दुःखोत्पानादि कार्य करने में उसीप्रकार असमर्थ होता है जिस प्रकार कि मिट्टी और पानी प्रादिके विना बीन