________________ रत्नकरण्डके कर्तृत्व-विषयमें मेरा विचार और निर्णय ..436 है और वे दोनों ही 'दोष' के स्वरूप-कथनसे रिक्त है। मोर इसलिये दोषका अभिमत स्वरूप जाननेके लिये प्राप्तमीमांसाकी टीकामों तथा प्राप्तमीमांसाकारकी दूसरी कृतियोंका पाश्रय लेना होगा। साथ ही अन्यके सन्दर्भ अथवा पूर्वापरकथन-सम्बन्धको भी देखना होगा / टीकामोंका विचार प्रोफेसर साहबने ग्रन्थसन्दर्मके साथ टीकामोंका प्राश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीकाके माधारपर, जिसमें प्रकलदेवकी अष्टशती टीका भी शामिन है, यह प्रतिपादित किया है कि 'दोषावरणयोहानिः' इस चतुर्थ-कारिका-गत वाक्य और 'स त्वमेवासि निदोप:' इस छठी कारिकागत वाक्यमें प्रयुक्त 'दोष' शब्दका अभिप्राय उन प्रज्ञान तथा राग-द्वेषादिक वृत्तियोंसे है जो ज्ञानावरणादि घातिया कोमे उत्पन्न होती है और केवलीमें उनका प्रभाव होनेपर नष्ट हो जाती है / इस इष्टिमे रत्नकरण्डके उक्त छठे पचमें उल्लेखित भय, स्मय, राग, द्वेष पौर मोह ये पांच दोष तो पापको प्रसङ्गत प्रथवा विरुद्ध मालूम नहीं पड़ते; शेष क्षुधा, पिपासा, बरा, पात (रोग), जन्म और पन्तक (मरण) इन ग्रह दोषोंको माप असंगत समझते हैं-उन्हें सर्वथा असाता वेदनीयादि प्रघातिया कर्मजन्य मानते है और उनका प्राप्त केवलीमें प्रभाव बतलानेपर प्रघातिया कोका सत्व तथा उदय वर्तमान रहनेके कारण सैद्धान्तिक कठिनाई महसूस करते है। परन्तु मप्टसहस्रीमें ही द्वितीया कारिकाके अन्तर्गत "विग्रहादिमहोदयः' पदका जो अर्थ 'शश्वन्निस्वेदत्वादि' किया है और उसे 'पातिमवज:' बतलाया है उसपर प्रो० साहबने पूरीतोरपर ध्यान दिया पासून नहीं होता / 'शश्वन्नि: स्वेदत्वादि:' पदमें उन 34 अतिशयों तथा जातिहार्यों का समावेश है जो श्रीपूज्यपादके 'नित्यं निःस्वेदत्वं इस भक्तिपाठगत महत्स्तोत्रमें वर्णित है / इन पतिशयोंमें महंत-स्वयम्भूकी देह- "दोषास्तावदज्ञान- राग-पादय उक्ताः" / (प्रष्टसहनी का० 6, पृ० 62) .. प्रिनेकान्त वर्ष कि० 7-8, 30 62 * पनेकान्त वर्ष 7. कि० 3-4, पृ० 31