________________ 438 जेनसाहित्य और इतिहासपर विशद प्रकाश . उपाध्येजीसे निवेदन किया गया; परन्तु हरवार यही उत्तर मिलता रहा कि भट्टारकजी मठमें मौजूद नहीं है, बाहर गये हुए है-दे अक्सर बाहर ही धूमा करते हैं-मोर बिना उनकी मौजूदगी के मठके शास्त्रभण्डारको देखा नहीं जा सकता। ऐसी हालतमें रत्नकरण्डका छठा पद्य अभी तक मेरे विचाराधीन ही चला जाता है। फिलहाल, वर्तमान चर्चा के लिये, मैं उसे मूलग्रन्थका अंग मानकर ही प्रोफेसरमाहबकी चारों भापत्तियोंपर अपना विचार और निर्णय प्रकट कर देना चाहता हूँ / मोर वह निम्न प्रकार है: (1) रत्नकरण्डको प्राप्तमीमांसाकार स्वामी समन्तभद्रकी कृति न बतलाने में प्रोफेसर साहबकी जो सबसे बड़ी दलील है वह यह है कि 'रत्नकरण्डके क्षुत्पिपासा' नामक पद्यमें दोषका जो स्वरूप समझाया गया है वह प्राप्तमीमांसाकारके अभिप्रायानुसार हो ही नहीं सकता-प्रर्थात् प्राप्तमीमांसाकारका दोषके स्वरूपविषयमें जो अभिमत है वह गलकरण्डके उक्त पद्यमें वगित दोष-स्वरूपके साथ मेल नहीं खाता-विरुद्ध पड़ता है, और इसलिये दोनों अन्य एक ही प्राचार्यकी कृति नहीं हो सकते' / इस दलीलको चरितार्थ करनेके लिये सबसे पहले यह मालूम होने की जरूरत है कि प्राप्तमीमांसाकारका दोषके स्वरूप-विषयमें क्या अभिमत अथवा अभिप्राय है और उसे प्रोफेसर साहबने कहाँ से अवगत किया है ?-मूल प्राप्तमीमांसापरसे ! प्राप्नमीमांसाको टीकापोंपरसे ? अथवा प्राप्तमीमांसाकारके दूमरे ग्रन्थोंपरसे ? और उसके बाद यह देखना होगा कि वह रत्नकरण्डके 'क्षुत्पिपामा' नामक पचके माथ मेल खाता अषवा संगत बंटना है. या कि नहीं। प्रोफेसर साहबने प्राप्तमीमांसाकारके द्वारा अभिमत दोषके स्वरूपका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया-अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ सकेत ही किया है / उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है कि मूल प्राप्तमीमांमामे कहीं भी दोषका कोई स्वरूप दिया हुमा नहीं है। 'दोष' भन्दका प्रयोग कुल पॉपकारिकानों नं. 4, 6, 56, 62, 80 में दमा है जिनमेसे पिछली तीन कारिकामोंमें बुद्ध घसंचरदोष, वृतिदोष और प्रतिमा तथा हेतु-दोषका क्रमशः उल्लेख है, माप्तदोषसे सम्बन्ध रखनेवाली केवल 4 थी तथा ६ठी कारिकाएं ही